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Tuesday 17 December 2019

उसकी आँखें कुछ कहती हैं...


उसकी आँखें कुछ कहती हैं
क्या कहती हैं पता नहीं
मैं जो इनमें खो जाऊं
तो इसमें मेरी खता नहीं

पलकें भी कुछ-कुछ कहती हैं
हर एक पल झुकती रहती हैं
जो पूछूं कोई बात है क्या
कहती हैं कुछ भी पता नहीं

ये नींदें मेरी उड़ाती हैं
पल-पल मुझको याद आती हैं
बिन देखे इन्हें अब चैन नहीं
बीते एक पल-छिन-रैन नहीं

ये भी तो मुझपे टिकती हैं
लेकिन कहने से डरती हैं
जब बात करूँ तो कहती हैं
बातों में अब वो मज़ा नहीं

Sunday 15 July 2012

वो लम्हे...


याद है जब मैंने पहली बार तुम्हें देखा था
तुम ऐसे शरमाई थी की मैं देखता रह गया

इससे पहले जब भी मैं तुम्हें देखता था
तुम ठीक इसी तरह शरमाया करती थी

बारिश की वो फुहारें जब भी भिगाती थीं
तुम चुपके-चुपके पलकों को नीचे झुकाती थी

शायद तुम मुझे देखने की कोशिश करती थी
और मैं भी बस तुम्हें ही देखना चाहता था

कितनी खुश होती थी तुम जब मुझे देखती थी
और मैं भी बस तुम में ही अपनी ख़ुशी देखता था

तुम्हें देखना, सुनना और तुमसे बात करना
यही तो मेरे हर दिन का काम हुआ करता था

तुम भी तो मेरे साथ रहना पसंद किया करती थी
मुझे देखने को तुम अपनी पलकें बंद किया करती थी

वक़्त ने जम्हाई ली और सारे मंज़र बदल गए
देखते ही देखते न जाने वो लम्हे कहाँ खो गए

वक़्त चलता रहा, मन मचलता रहा
मैं हर पल तड़पता रहा बस तुम्हारे लिए

हर जगह मेरी नज़रें बस तुम्हें ढूँढतीं
मैंने मांगी दुआएं, हर तरफ जलाए दीए

कुछ समझ में न आया तुम कहाँ खो गई
मैं हार गया और एक दिन मेरी आँखें सो गईं

Tuesday 27 September 2011

कोई चुपके-चुपके कहता है












कोई
चुपके-चुपके कहता है

कोई गीत लिखो मेरी आँखों पर

कोई
शेर लिखो इन लफ़्ज़ों पर

इन
खुशबू जैसी बातों पर


चुपचाप
मैं सुनता रहता हूँ

इन
झील सी गहरी आँखों पर
इक ताज़ी ग़ज़ल लिख देता हूँ
इन
फूलों जैसी बातों पर

इक
शे'र नया कह देता हूँ

एहसासों
पर ज़ज्बातों पर


ये
गीत-ग़ज़ल ये शे'र मेरे

सब
उसके प्यार का दर्पण हैं

सब
उसके रूप का दर्शन हैं

सब
उसकी आंख का काजल हैं

Saturday 17 September 2011

एक ग़ज़ल : झूठी आस बंधाने वाले




झूठी आस बंधाने वाले दिल को और दुखइयो ना,
माज़ी की मुस्कान लबों को हरगिज़ याद दिलइयो ना|

दुनिया एक रंगीन गुफा है अय्यारी से रोशन है,
मेरी सादगी के अफ़साने गली-गली सुनइयो ना|

रमता जोगी बहता पानी इनका कहाँ ठिकाना है,
कोरे आँचल को नाहक़ में गीला रोग लगइयो ना|

हम हैं बदल बेरुत वाले बरसे-बरसे न बरसे
मौसम के जादू के नखरे मेरी जान उठइयो ना|

रुसवाई के सौ-सौ पत्थर कदम-कदम पर बरसेंगे,
दिल के टूटे हुए आईने दुनिया को तू दिखइयो ना|

'गौतम' सो जाएगा एक दिन ग़म की चदरिया ओढ़ के
आते-जाते गली में कोई गीत ख़ुशी के गइयो ना!!!

Thursday 21 July 2011

मोहब्बत...

आज दिल की जुबां बनकर आएगी मोहब्बत
जो नहीं कहना था वो कह जाएगी मोहब्बत

मेरी बस यही आरज़ू है कि तेरी ये आँखें
ख़ाब इसमें सारे मुझको दिखाएगी मोहब्बत

मेरे दिल से कोई पूछे कितना शामिल है तू मुझमें
जां मेरी जान लेके भी चैन पाएगी न मोहब्बत

मैंने माँगा था जिसको दुआओं में वो तू है
हर दुआ अबके मेरी रंग लाएगी मोहब्बत

प्यार का ये है सफ़र एक हम एक तुम हो
इस जनम में ही मंज़िल दिलाएगी मोहब्बत

ऐ मेरी जान-ऐ-ग़ज़ल थाम ले दिल तू अपना
राज़ दिल में जो छिपे हैं वो बताएगी मोहब्बत

मैं तो कहता हूँ वापस मत आना...!!!

अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना
सिर्फ एहसान जताने के लिए मत आना

मैंने पलकों पर तमन्ना सजाकर रखी है
दिल में उम्मीद की शमां जलाकर रखी है

ये हंसीं शमां भुझाने के लिए मत आना
सिर्फ एहसान जताने के लिए मत आना

प्यार की आग में जंज़ीरें पिघल सकती हैं
चाहने वालों की तक़दीरें बदल सकती हैं

हम हैं बेबस ये बताने के लिए मत आना
सिर्फ एहसान जताने के लिए मत आना

तुम आना जो मुझसे तुम्हें मोहब्बत है
आना अगर मुझसे मिलने की चाहत है

तुम कोई रसम निभाने मत आना
सिर्फ एहसान जताने के लिए मत आना

(जहाँ तक मेरी जानकारी है ये रचना ज़नाब ज़ावेद अख्तर साब की है.
कुछ पंक्तियाँ उनकी मूल रचना से अलग हैं.)

Friday 8 July 2011

तुम एक बार आकर समझा दो दिल को

कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए
कि सूरज न डूबे
और चाँद भी जगमगाए
ज़मीन-ओ-आसमां जागते हों
सितारे इधर से उधर भागते हों
हवा पागलों की तरह
ढूंढती हो मुझे और न पाए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

फ़लक पर बिछा दे कोई रंगीन चादर
समां हो कि जैसे नहाए हुए
तेरे बालों पे बूंदें हैं
चमके हैं मोती
हवा तेरी खुशबू लिए सरसराए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

मुंडेरे से अपने उड़ाकर कबूतर
मेरी चाहत की जानिब कुछ यूं मुस्कुराकर
दुपट्टे के कोने को दांतों में दबाकर
ये तुमने कहा था कि मैं बनके बदरा
बरसूँगी एक दिन
न जाने घडी वो कब आए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

तुम्हारे लिए मुंतज़िर मेरी आँखें
बिछाए पलक में तकूँ तेरी राहें
बहुत बार ऐसे भी धोखा हुआ है
कि सपनों की बाहों में
आकर के तुमने
चूमा था माथा बड़ी पेशगी से
घटाओं की मानिंद लहरायीं ज़ुल्फें
वो संदल की खुशबू से महकी फिज़ाएं
था पुरनूर कैसा मेरा आशियाना
वो मेरी आँख से अब न जाए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

तुम्हारे लिए हैं ये नज़्में, ये ग़ज़लें
तुम्हारे ही दम से हैं सारे फ़साने
तुम्हारे लिए छंद, मुक्तक, रु'बाई
तुम्हीं मेरी गीता की अवधारणा हो
जियूं तुमको रगों में वो प्रेरणा हो
बहुत दूर हो तुम बहुत दूर हम हैं
कि हालात से अपने मज़बूर हम हैं
तुम एक बार आकर समझा दो दिल को
यूं ख़्वाबों में इसे न पागल जिया कर
न ख़्वाबों से अपने गिरेबान सिया कर
तू सपनों की माला में सपने पिरोकर
किसे ढूंढता है यूं सपनों में खोकर
तेरे वास्ते हैं न ज़ुल्फों के साए
लबों के तबस्सुम न महकी फिज़ाएं
तेरे वास्ते सिर्फ सपनों की दुनिया
नहीं तेरी खातिर है अपनों की दुनिया
ये सपने हैं पगले कभी सच न होंगे
मुझे है यक़ीं ये जो तुम आकर कहदो
मेरा दिल 'किशन' शौक़ से मान जाए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

Sunday 3 July 2011

वो ख़फ़ा है अब भी..!

शाख से अपनी हर एक फूल ख़फ़ा है अब भी
हाल गुलशन का मेरे दोस्त बुरा है अब भी

दाग हर दौर को जिससे नज़र आया तुझमें
शायद वो क़िस्सा तेरे साथ जुड़ा है अब भी

उसका दावा है ग़लत ये तो नहीं कहते हम
ज़िंदगी अपनी मगर एक सज़ा है अब भी

मैं जी उठता हूँ मरकर भी तो लगता है मुझे
मेरे हमराह बुजुर्गों की दुआ है अब भी

है हवा में जो घुटन उसका मतलब है यही
मुझसे जो रूठ गया था वो ख़फ़ा है अब भी

क्या ख़बर थी कि किसी रोज़ बिछड़ जाएंगे
तेरे आने की एक उम्मीद लगी है अब भी

जुबां ख़ामोश, चस्म-ऐ-तर, घटा है दर्द की छाई
मेरे सीने में एक आह दबी है अब भी

Saturday 2 July 2011

आँखों में बसा ले मुझको

आ कि चाहत का फूल खिलाकर ले जा
ज़िश्त में जो है मेरे पास उठाकर ले जा

तू मेरे ग़म को मेरे पास यूँ ही रहने दे
अपनी खुशियों के वो लम्हात सजाकर ले जा

तोड़ दे मेरी अना फिर भी मुझे फ़िक्र नहीं
मेरे अन्दर की बग़ावत को छिपाकर ले जा

रोज़ गिरता हूँ मगर गिर के संभल जाता हूँ
तुझ में दम है तो मुझे फिर से गिराकर ले जा

कोई सूरज तो नहीं अपना क़हर बरपा करूँ
चाँद हूँ मुझमें शहद अपनी घुलाकर ले जा

मैं तो पत्थर की तरह रोज़ लुढ़कता हूँ सनम
तू जो गंगा है तो फिर मुझको बहाकर ले जा

तेरी खुशबू को हवा बनके बिखेरा मैंने
जो हूँ मैं धूल तो फिर मुझको उड़ाकर ले जा

मैं जो काजल हूँ तो आँखों में बसा ले मुझको
और हूँ दर्द तो अश्क़ों में बहाकर ले जा

Monday 27 June 2011

जग सूना-सूना लगता है

लब पे तेरे इकरार-ऐ-मोहब्बत अभी सुना-सुना लगता है
शर्म से चेहरा लाल गुलाबी फूल कँवल का लगता है

दिल की नज़र से टकराए भी एक ज़माना बीत गया
चोट मगर है इतनी ताज़ा जैसा हादसा कल का लगता है

बेखुद होकर मस्त हवाएं ऐसे लहराती थीं
ये जादू तो हल्का-हल्का तुम्हारे आचल का लगता है

हम समझे थे तुम भूल गए हो वो चाहत का अफसाना
आज मगर फिर दर्द सा दिल में हल्का-हल्का लगता है

पास होकर दूर जाने की ये अदा हमें तड़पाती है
तुझ एक के ही न होने से जग सूना-सूना लगता है

Wednesday 22 June 2011

तेरे सिवा कुछ भी नहीं

सोचा नहीं अच्छा बुरा
देखा सुना कुछ भी नहीं
माँगा खुदा से हर वक़्त
तेरे सिवा कुछ भी नहीं

देखा तुझे चाहा तुझे
सोचा तुझे पूजा तुझे
मेरी वफ़ा मेरी ख़ता
तेरी ख़ता कुछ भी नहीं

जिस पर हमारी आँख ने
मोती बिछाए रात भर
भेजा वही कागज़ उसे
उसमें लिखा कुछ भी नहीं

एक शाम की दहलीज़ पर
बैठे रहे वो देर तक
आँखों से की बातें बहुत
मुंह से कहा कुछ भी नहीं

दो चार दिन की बात है
दिल खाक़ में मिल जाएगा
आग पर जब कागज़ रखा
बाक़ी बचा कुछ भी नहीं

Tuesday 21 June 2011

ज़िंदगी को जुबान दे देंगे

ज़िंदगी को जुबान दे देंगे

ज़िंदगी को जुबान दे देंगे
धड़कनों की कमान दे देंगे

हम तो मालिक हैं अपनी मर्ज़ी के
जी में आया तो जान दे देंगे

रखते हैं वो असर दुआओं में
हौसले को उड़ान दे देंगे

जो है सहमी पड़ी समंदर में
उस लहर को उफान दे देंगे

जिनको ज़र्रा नहीं मयस्सर है
उनको पूरा जहान दे देंगे

करके मस्ज़िद में आरती-पूजा
मंदिरों से अजान दे देंगे

मौत आती है तो आ जाए
तेरे हक में बयान दे देंगे



Monday 20 June 2011

सपने...





कभी यकीन की दुनिया में जो गए सपने
उदासियों के समंदर में खो गए सपने

बरस रही थी हकीकत की धूप घर बाहर

सहम के आँख के आँचल में सो गए सपने

कभी उड़ा के मुझे आसमान तक लाये

कभी शराब में मुझको डुबो गए सपने

हमीं थे नींद में जो उनको सायबाँ समझा

खुली जो आँख तो दामन भिगो गए सपने

खुली रहीं जो भरी आँखे मेरे मरने पर

सदा-सदा के लिए आज खो गए सपने

Friday 17 June 2011

मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार

शाम का वक़्त है शाखों को हिलाता क्यों है
तू थके-मांदे परिंदों को उड़ाता क्यों है

वक़्त को कौन भला रोक सका है पगले
सुइयां घड़ियों की तू पीछे घुमाता क्यों है

स्वाद कैसा है पसीने का ये मजदूर से पूछ
छाँव में बैठकर अंदाज़ लगता क्यों है

मुझको सीने से लगाने में है तौहीन अगर
दोस्ती के लिए फिर हाथ बढ़ाता क्यों है

प्यार के रूप हैं सब त्याग-तपस्या-पूजा
इनमे अंतर का कोई प्रश्न उठाता क्यों है

मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार
इसका मतलब मेरे सुख-दुःख से लगाता क्यों है

Sunday 10 April 2011

तुझपे फ़िदा क्या करूं






मेरे दिल में तू ही तू है
दिल की दवा क्या करूं

दिल भी तू है जां भी तू है
तुझपे फ़िदा क्या करूं


खुद को खोके तुझको पाकर

क्या-क्या मिला क्या कहूं
तेरा होके जीने में क्या
आया मज़ा क्या कहूं

कैसे दिन हैं कैसी रातें
कैसी फिजा क्या कहूं

मेरी होके तूने मुझको
क्या-क्या दिया क्या कहूं

मेरे पहलू में जब तू है
फिर मैं दुआ क्या करूं

दिल भी तू है जां भी तू है
तुझपे फ़िदा क्या करूं


मेरे दिल में तू ही तू है
दिल की दवा क्या करूं
है
ये
दुनिया दिल की दुनिया
मिलके रहेंगे यहां
लूटेंगे

हम
खुशियां हर पल
दुःख
सहेंगे यहां
अरमानों
के चंचल धारें
ऐसे बहेंगे यहां

ये तो सपनों की जन्नत है
सब
ही कहेंगे यहां
ये दुनिया मेरे दिल में बसी है
दिल
से जुदा क्या करूं

दिल
भी तू है जां भी तू है
तुझपे
फ़िदा क्या करूं

Thursday 17 March 2011

इस क़दर उसका ऐतबार किया

इस क़दर उसका ऐतबार किया
टूटकर मैंने उसको प्यार किया

उसके आने की आस टूट गई
मैंने खुद अपना इंतज़ार किया

वास्ता मेरा पत्थरों से रहा
रास्ता जो भी इख्तियार किया

Wednesday 2 March 2011

फिर से तू बच्चा कर दे...

ख़ुदा इससे पहले कि मौत मुझे रुसवा कर दे
तू मेरी रूह मेरे ज़िस्म को अच्छा कर दे

ये जो हालत है मेरी मैंने ही बनाई है
इसे जैसा तू चाहता है अब वैसा कर दे

मेरे हर फैसले में तेरी रज़ा शामिल हो
जो तेरा हुक्म हो वो मेरा इरादा कर दे

मुझमें जो बीमार है उसको तू अच्छा कर दे
सुनले एक गुजारिश मुझे फिर से तू बच्चा कर दे!!

Thursday 24 February 2011

शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं...

शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है

रिश्ता ही मेरी प्यास का पानी से नहीं है।


कल यूँ था कि ये क़ैदे-ज़्मानी से थे बेज़ार

फ़ुर्सत जिन्हें अब सैरे-मकानी से नहीं है।


चाहा तो यकीं आए न सच्चाई पे इसकी

ख़ाइफ़ कोई गुल अहदे-खिज़ानी से नहीं है।


दोहराता नहीं मैं भी गए लोगों की बातें

इस दौर को निस्बत भी कहानी से नहीं है।


कहते हैं मेरे हक़ में सुख़नफ़ह्म बस इतना

शे'रों में जो ख़ूबी है मआनी से नहीं है।



शब्दार्थ :

क़ैदे-ज़मानी=समय की पाबन्दी;
सैरे-मकानी=दुनिया की सैर;
ख़ाइफ़=डरा हुआ;
अहदे-ख़िज़ानी=पतझड़ का मौसम;
मआनी=अर्थ

» रचनाकार: शहरयार
» संग्रह: शाम

Tuesday 22 February 2011

... अब अच्छा हो गया कैसे?

जो बुरा था कभी अब हो गया अच्छा कैसे

वक़्त के साथ मैं इस तेज़ी से बदला कैसे।


जिनको वह्शत से इलाक़ा नहीं वे क्या जानें

बेकराँ दश्त मेरे हिस्से में आया कैसे।


कोई इक-आध सबब होता तो बतला देता

प्यास से टूट गया पानी का रिश्ता कैसे।


हाफ़िज़े में मेरे बस एक खंडहर-सा कुछ है

मैं बनाऊँ तो किसी शह्र का नक़्शा कैसे।


बारहा पूछना चाहा कभी हिम्मत न हुई

दोस्तो रास तुम्हें आई यह दुनिया कैसे।


ज़िन्दगी में कभी एक पल ही सही ग़ौर करो

ख़त्म हो जाता है जीने का तमाशा कैसे।

रचनाकार: शहरयार">शहरयार » संग्रह: शाम होने वाली है / शहरयार">शाम होने वाली है

Sunday 13 February 2011

याद आऊंगा


आईना सामने रक्खोगे तो याद आऊंगा
अपनी
ज़ुल्फ़ों को सँवारोगे तो याद आऊंगा

रंग
कैसा हो, ये सोचोगे तो याद आऊंगा
जब
नया सूट ख़रीदोगे तो याद आऊंगा

भूल जाना मुझे आसान नहीं है इतना
जब
मुझे भूलना चाहोगे तो याद आऊंगा

ध्यान
हर हाल में जाये गा मिरी ही जानिब
तुम
जो पूजा में भी बैठोगे तो याद आऊंगा


एक
दिन भीगे थे बरसात में हम तुम दोनों
अब
जो बरसात में भीगोगे तो याद आऊंगा

चांदनी
रात में, फूलों की सुहानी रुत में
जब
कभी सैर को निकलोगे तो याद आऊंगा

जिन
में मिल जाते थे हम तुम कभी आते जाते
जब
भी उन गलियों से गुज़रोगे तो याद आऊंगा

याद आऊंगा उदासी की जो रुत आएगी
जब
कोई जश्न मनाओगे तो याद आऊंगा

शैल्फ़
में रक्खी हुई अपनी किताबों में से
कोई
दीवान उठाओगे तो याद आऊंगा

शमा की लौ पे सरे-शाम सुलगते जलते
किसी
परवाने को देखोगे तो याद आऊंगा
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