Thursday 24 February 2011

शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं...

शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है

रिश्ता ही मेरी प्यास का पानी से नहीं है।


कल यूँ था कि ये क़ैदे-ज़्मानी से थे बेज़ार

फ़ुर्सत जिन्हें अब सैरे-मकानी से नहीं है।


चाहा तो यकीं आए न सच्चाई पे इसकी

ख़ाइफ़ कोई गुल अहदे-खिज़ानी से नहीं है।


दोहराता नहीं मैं भी गए लोगों की बातें

इस दौर को निस्बत भी कहानी से नहीं है।


कहते हैं मेरे हक़ में सुख़नफ़ह्म बस इतना

शे'रों में जो ख़ूबी है मआनी से नहीं है।



शब्दार्थ :

क़ैदे-ज़मानी=समय की पाबन्दी;
सैरे-मकानी=दुनिया की सैर;
ख़ाइफ़=डरा हुआ;
अहदे-ख़िज़ानी=पतझड़ का मौसम;
मआनी=अर्थ

» रचनाकार: शहरयार
» संग्रह: शाम

1 comment:

kshama said...

शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है

रिश्ता ही मेरी प्यास का पानी से नहीं है।
In do panktiyon ne behad prabhavit kar diya!Waise pooree rachana behad achhee hai!

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