आपा-धापी, धूप-छाओं हर हाल में खुश रहती माँ।
घर से आंगन, आंगन से घर दिनभर चलती रहती माँ।
सबको दुःख में कान्धा देती अपने दुःख खुद पी लेती,
पत्नी, बेटी, सास, बहु कितने हिस्सों में बटती माँ।
चूल्हा, चक्की, नाते, रिश्ते सारे काज निभाती है,
रोली, केसर, चन्दन, टीका जाने क्या-क्या बन जाती माँ।
पूजा, पथ, नियम, धरम सब कुछ औरों की खातिर ही,
हरछट, तीजा, करवा, कजली सारे पर्व मनाती माँ।
ईश्वर जाने कैसा होगा, माँ कहती वह नेक बहुत,
जब-जब वक़्त बुरा आया खुद ही नेकी बन जाती माँ।
बाल दूधिया, हाथ खुरदरे, लव पर उसके सदा दुआ,
छूकर के लेकिन गालों को स्पर्श सुखद दे जाती माँ।
देना ही उसका धरम रहा, रंग रूप वो जाने क्या,
सबके होठों को देके हंसी चुपके-छुपके रो लेती माँ।
कभी जो दिल में टीस उठे या माथे पे कोई उलझन हो,
जाने मन ही मन में कितनी मन्नत बद देती माँ।
माँ की आखों में तैर रहा ये प्रेम का अद्भुत सागर है,
मेरी ग़लती पर खुद रोकर कितनी करुणा भर देती माँ।
माँ के दम से ही दुनिया है, ईश्वर भी स्वयं नतमस्तक है,
जाने उस दिन क्या होगा जिस दिन पलकें ढँक लेगी माँ।
लोग कहते हैं कि मेरा अंदाज़ शायराना हो गया है पर कितने ज़ख्म खाए हैं इस दिल पर तब जाकर ये अंदाज़ पाया है...
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Saturday 8 May 2010
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