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Saturday 28 August 2010

मैं और तुम...

दोनों एक जैसे हैं...
मैं बेसहारा इंसान हूँ।
मुझसे अब बच्चे भी बात करना पसंद नहीं करते।
लोगों ने मुझसे मिलना भी बंद कर दिया है।
क्या बताऊँ तुम्हें अपना अतीत।
जब मैं जवान हुआ करता था।
दुनिया का बोझ कन्धों पे लिए फिरता था।
दूसरों का ग़म मैं खुद ही पिया करता था।
वक़्त बदला, हवाएं बदलीं,
मज़बूरन मैं भी बदल गया।

सूरज का तेज था मुझमें कभी।
अब ज़िल्लत की मूरत बनकर रह गया।
लोग कहते हैं कि मैं बूढ़ा हो गया हूँ...



मैं पेड़ की ठूंठ हूँ।
मुझपे अब पंछी भी बैठना पसंद नहीं करते।
लोगों की नज़र भी नहीं पड़ती अब मुझ पर।
क्या बताऊँ तुम्हें मेरा अतीत।
जब लोग मुझे देखकर आहें भरा करते थे।
मेरी हरियाली से अपना श्रृंगार किया करते थे।
वक़्त बदला, हवाएं बदलीं,
मज़बूरन
मैं भी बदल गया।

खिलता, चहकता पेड़ था मैं कभी।
अब पेड़ की ठूंठ बनकर रह गया।
लोग कहते हैं कि मैं बूढ़ा हो गया हूँ...

Sunday 4 April 2010

हम... क्यों हैं इंसान..?

'हवा...' भेद नहीं करता किसी में
देता है प्राण और जीवन सभी को

'पेड़...' नहीं देखती कोई अपना पराया
सबको देती है फल और निर्मल छाया

'गोलियां...' नहीं जानतीं बूढ़े, बच्चे और जवान
छलनी करती हैं सीना, भेजती हैं श्मशान

'मां...' नहीं बांटती अपना प्यार
छोटा या बड़ा हो बेटा, देती है समान दुलार

'बम...' नहीं देखते घर और पहाड़
उजाड़ देते हैं गुलशन जब करते हैं दहाड़

जब ये सब अपना फर्ज नियमित निभाते हैं
तो हम अपने कर्तव्यों से क्यों कतराते हैं

'प्रकृति...' बांटती है खुशियां "जनहित" के मंगल में
और... हम 'इंसान' हैं जो खोए हुए हैं "भेदभाव" के जंगल में!
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