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Monday, 13 December 2010

बचपन का ज़माना होता था

बचपन का ज़माना होता था
खुशियों का खज़ाना होता था


थी चाहत चाँद को पाने की
दिल तितली का दीवाना होता था


ख़बर न थी कुछ सुबह की
न शामों का ठिकाना होता था

थक-हार के आना स्कूल से
फिर खेलने भी जाना होता था

दादी की कहानी होती थी
परियों का फ़साना होता था

बारिश में कागज़ की कश्ती थी
हर मौसम सुहाना होता था

हर खेल में साथी होते थे
हर रिश्ता निभाना होता था

पापा की वो डांटें गलती पर
मम्मी का मनाना होता था

रोने की वज़ह न होती थी
न हंसने का बहाना होता था

जब कोई दोस्त बुलाता था
तब दौड़ के जाना होता था

रोज़ाना खेल के बाहर से
घर से जल्दी आना होता था

अब नहीं रही वो ज़िंदगी जैसा
बचपन का ज़माना होता था!!?!!

Friday, 15 October 2010

माँ कहती थी...

माँ कहती थी बेटा लौट आओ!
वहां तुम्हे धूप की मार झेलनी होगी


बहुत थक जाओगे तुम काम करते-करते
तुम नहीं सह सकोगे तेज़ आँधियों के थपेड़े


तुम रात में ठीक से सो भी न सकोगे
बेटा! जहाँ तुम हो वहां रात ही नहीं होती


दिन का सूरज भी नसीब नहीं होगा तुम्हें
रात की चांदनी तो बहुत दूर की बात है


कैसे रह पाओगे तुम अपनी माँ के बिना
क्या इतने निष्ठुर हो गए हो तुम


माँ कहती थी हमेशा ऐसा ही बहुत कुछ
लेकिन मैं नहीं समझ पाया माँ की नसीहत


कितनी सही कहती थी माँ आज वैसा ही है
सामने नदी बहती है फिर भी प्यासा हूँ मैं


दरिया में डूबकर भी मैं भीग नहीं पा रहा
तब तो उसकी ममता की एक बूँद ही काफी थी


रोज़ लौटने का मन बनता हूँ लेकिन अफसोस
मन की बात मन में ही छिपकर रह जाती है


काश! तब मान ली होती माँ की बात
आज हर पल घुटना नहीं पड़ता मुझे


वक़्त कहता है अब बहुत देर हो गई है
तू यहीं रह, वापस जाने की सोचना भी मत!!!
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