'हवा...' भेद नहीं करता किसी में
देता है प्राण और जीवन सभी को
'पेड़...' नहीं देखती कोई अपना पराया
सबको देती है फल और निर्मल छाया
'गोलियां...' नहीं जानतीं बूढ़े, बच्चे और जवान
छलनी करती हैं सीना, भेजती हैं श्मशान
'मां...' नहीं बांटती अपना प्यार
छोटा या बड़ा हो बेटा, देती है समान दुलार
'बम...' नहीं देखते घर और पहाड़
उजाड़ देते हैं गुलशन जब करते हैं दहाड़
जब ये सब अपना फर्ज नियमित निभाते हैं
तो हम अपने कर्तव्यों से क्यों कतराते हैं
'प्रकृति...' बांटती है खुशियां "जनहित" के मंगल में
और... हम 'इंसान' हैं जो खोए हुए हैं "भेदभाव" के जंगल में!
लोग कहते हैं कि मेरा अंदाज़ शायराना हो गया है पर कितने ज़ख्म खाए हैं इस दिल पर तब जाकर ये अंदाज़ पाया है...
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Sunday 4 April 2010
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