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Sunday, 15 July 2012

वो लम्हे...


याद है जब मैंने पहली बार तुम्हें देखा था
तुम ऐसे शरमाई थी की मैं देखता रह गया

इससे पहले जब भी मैं तुम्हें देखता था
तुम ठीक इसी तरह शरमाया करती थी

बारिश की वो फुहारें जब भी भिगाती थीं
तुम चुपके-चुपके पलकों को नीचे झुकाती थी

शायद तुम मुझे देखने की कोशिश करती थी
और मैं भी बस तुम्हें ही देखना चाहता था

कितनी खुश होती थी तुम जब मुझे देखती थी
और मैं भी बस तुम में ही अपनी ख़ुशी देखता था

तुम्हें देखना, सुनना और तुमसे बात करना
यही तो मेरे हर दिन का काम हुआ करता था

तुम भी तो मेरे साथ रहना पसंद किया करती थी
मुझे देखने को तुम अपनी पलकें बंद किया करती थी

वक़्त ने जम्हाई ली और सारे मंज़र बदल गए
देखते ही देखते न जाने वो लम्हे कहाँ खो गए

वक़्त चलता रहा, मन मचलता रहा
मैं हर पल तड़पता रहा बस तुम्हारे लिए

हर जगह मेरी नज़रें बस तुम्हें ढूँढतीं
मैंने मांगी दुआएं, हर तरफ जलाए दीए

कुछ समझ में न आया तुम कहाँ खो गई
मैं हार गया और एक दिन मेरी आँखें सो गईं

Friday, 8 July 2011

तुम एक बार आकर समझा दो दिल को

कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए
कि सूरज न डूबे
और चाँद भी जगमगाए
ज़मीन-ओ-आसमां जागते हों
सितारे इधर से उधर भागते हों
हवा पागलों की तरह
ढूंढती हो मुझे और न पाए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

फ़लक पर बिछा दे कोई रंगीन चादर
समां हो कि जैसे नहाए हुए
तेरे बालों पे बूंदें हैं
चमके हैं मोती
हवा तेरी खुशबू लिए सरसराए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

मुंडेरे से अपने उड़ाकर कबूतर
मेरी चाहत की जानिब कुछ यूं मुस्कुराकर
दुपट्टे के कोने को दांतों में दबाकर
ये तुमने कहा था कि मैं बनके बदरा
बरसूँगी एक दिन
न जाने घडी वो कब आए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

तुम्हारे लिए मुंतज़िर मेरी आँखें
बिछाए पलक में तकूँ तेरी राहें
बहुत बार ऐसे भी धोखा हुआ है
कि सपनों की बाहों में
आकर के तुमने
चूमा था माथा बड़ी पेशगी से
घटाओं की मानिंद लहरायीं ज़ुल्फें
वो संदल की खुशबू से महकी फिज़ाएं
था पुरनूर कैसा मेरा आशियाना
वो मेरी आँख से अब न जाए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

तुम्हारे लिए हैं ये नज़्में, ये ग़ज़लें
तुम्हारे ही दम से हैं सारे फ़साने
तुम्हारे लिए छंद, मुक्तक, रु'बाई
तुम्हीं मेरी गीता की अवधारणा हो
जियूं तुमको रगों में वो प्रेरणा हो
बहुत दूर हो तुम बहुत दूर हम हैं
कि हालात से अपने मज़बूर हम हैं
तुम एक बार आकर समझा दो दिल को
यूं ख़्वाबों में इसे न पागल जिया कर
न ख़्वाबों से अपने गिरेबान सिया कर
तू सपनों की माला में सपने पिरोकर
किसे ढूंढता है यूं सपनों में खोकर
तेरे वास्ते हैं न ज़ुल्फों के साए
लबों के तबस्सुम न महकी फिज़ाएं
तेरे वास्ते सिर्फ सपनों की दुनिया
नहीं तेरी खातिर है अपनों की दुनिया
ये सपने हैं पगले कभी सच न होंगे
मुझे है यक़ीं ये जो तुम आकर कहदो
मेरा दिल 'किशन' शौक़ से मान जाए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

Wednesday, 22 June 2011

तेरे सिवा कुछ भी नहीं

सोचा नहीं अच्छा बुरा
देखा सुना कुछ भी नहीं
माँगा खुदा से हर वक़्त
तेरे सिवा कुछ भी नहीं

देखा तुझे चाहा तुझे
सोचा तुझे पूजा तुझे
मेरी वफ़ा मेरी ख़ता
तेरी ख़ता कुछ भी नहीं

जिस पर हमारी आँख ने
मोती बिछाए रात भर
भेजा वही कागज़ उसे
उसमें लिखा कुछ भी नहीं

एक शाम की दहलीज़ पर
बैठे रहे वो देर तक
आँखों से की बातें बहुत
मुंह से कहा कुछ भी नहीं

दो चार दिन की बात है
दिल खाक़ में मिल जाएगा
आग पर जब कागज़ रखा
बाक़ी बचा कुछ भी नहीं

Thursday, 13 May 2010

कोई दिल चुराए तो क्या कीजिए

कोई दिल में आए तो क्या कीजिए
कोई दिल चुराए तो क्या कीजिए

ज़मीं पर खड़े हैं तो कुछ ग़म नहीं
कोई ज़न्नत दिखाए तो क्या कीजिए

हर कोई है मुफलिस यहाँ देखिए
कोई तमन्ना जगाए तो क्या कीजिए

नहीं कोई दूजा तुम्हारे बिना
कोई खाबों में आए तो क्या कीजिए

तुम्हीं तुम बसे हो नज़र में मेरे
कोई नज़रें चुराए तो क्या कीजिए

ये आंसू नहीं बूँद बारिश की हैं
कोई मतलब बताए तो क्या कीजिए

तुम कहते हो हम भूल जाते हैं सब
कोई भूला न जाए तो क्या कीजिए

चंद दिन की ये रौनक बिखर जाएगी
तुम्हें समझ में न आए तो क्या कीजिए

Thursday, 29 April 2010

सितम के बाद वक़्त आएगा वफाई का!

तेरी ही राह पे नज़रें लगाए बैठे हैं
कि अपने आप को पागल बनाए बैठे हैं

जब से देखा है तुझे देखते ही रहते हैं
तुम्हारी याद में नींदें गँवाए बैठे हैं

चमन में फूल खिलेंगे यहाँ कभी "गौतम"
इसी उम्मीद से हम मुस्कुराए बैठे हैं

निकल के कारवां जाने कहाँ रुकेगा फिर
हर एक पड़ाव को मंज़िल बनाए बैठे हैं

जो तुम न आए तो हैरत न होगी महफ़िल में
हम तो अपने दोस्तों को भी आजमाए बैठे हैं

सितम के बाद वक़्त आएगा वफाई का
इस बात का खुद को भरोसा दिलाए बैठे हैं

नज़र नज़र में बात होती रहे तो बेहतर है
कोई न समझे कि किसी बेवफा से दिल लगाए बैठे हैं

Thursday, 22 April 2010

मुझे काश कोई दीवाना मिले!

दुआ दो हमें भी ठिकाना मिले
परिंदों को भी आशियाना मिले

तबियत से मिलें मुझे मेरे दोस्त
मेरे दोस्तों से ज़माना मिले

तरसता हूँ नन्हें से लब की तरह
तबस्सुम का कोई बहाना मिले

चला हूँ सफ़र में, मैं ये सोच के
कोई मीत बिछड़ा पुराना मिले

अभी तो लगी है झड़ी ही झड़ी
कभी कोई मौसम सुहाना मिले

'किशन' मैं हूँ आशिक़ ज़रा दूसरा
मुझे काश कोई दीवाना मिले




Sunday, 11 April 2010

भीगी पलकों ने लूटा मेरा दामन!

मैं वो नहीं जिसकी तुम्हें तलाश है
मैं वो सागर हूं जिसको पानी की प्यास है

मैं वो साया हूं जो अंधेरे में साथ चलता हूं
मैं वो जुगनू हूं जिसे उजाले की तलाश है

भीगी पलकों ने लूटा मेरा दामन ''गौतम''
सदियां गुजर गईं लेकिन मुझे एहसास है

तुम जब नहीं आते थे तो दिल रोता था
अब मेरे सामने हो तो क्यों दिल उदास है

तुम्हें देखते थकती नहीं थी नजरें मेरी
जब से देखा है तुझे जाने क्यों ये दिल हताश है

Sunday, 21 March 2010

तनहाइयों को अपना मुकद्दर बना लिया...

तनहाइयों को अपना मुकद्दर बना लिया
रुसवाइयों के साए में अपना घर बना लिया

सदियों से घुप अंधेरा पसरा रहा यहां
कुछ न मिला इन्हीं को सहर बना लिया

यूं तो नहीं है कोई दीवारो दर मेरा
पत्थर के झोपड़े को ही शहर बना लिया

कांटे बिछे हैं मेरे घर से तेरे घर तक
कंटीले रास्तों को फिर डगर बना लिया

कहते हैं "राम" जन्मा है बस गमों के लिए
इस कहासुनी को मैंने अमर बना लिया

Saturday, 6 March 2010

ज़ज्बात!

तेरी खुशी के लिए हमने गम उधार लिए
जाने कितनी बार तेरी खातिर लुटा बहार दिए

तुझे रोशनी देने को जलाया दिल अपना
तेरी सलामती को खुद ही जां निसार किए


हर सांस रखा तेरे कदमों के नीचे
चिलमन हटाकर छिप-छिपके तेरे दीदार किए

नजर न आई तुझे इश्क इस दीवाने की
तूने कितनी बार इस मासूम के शिकार किए



राम कृष्ण गौतम "राम"
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