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Tuesday, 27 September 2011

कोई चुपके-चुपके कहता है












कोई
चुपके-चुपके कहता है

कोई गीत लिखो मेरी आँखों पर

कोई
शेर लिखो इन लफ़्ज़ों पर

इन
खुशबू जैसी बातों पर


चुपचाप
मैं सुनता रहता हूँ

इन
झील सी गहरी आँखों पर
इक ताज़ी ग़ज़ल लिख देता हूँ
इन
फूलों जैसी बातों पर

इक
शे'र नया कह देता हूँ

एहसासों
पर ज़ज्बातों पर


ये
गीत-ग़ज़ल ये शे'र मेरे

सब
उसके प्यार का दर्पण हैं

सब
उसके रूप का दर्शन हैं

सब
उसकी आंख का काजल हैं

Thursday, 21 July 2011

मैं तो कहता हूँ वापस मत आना...!!!

अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना
सिर्फ एहसान जताने के लिए मत आना

मैंने पलकों पर तमन्ना सजाकर रखी है
दिल में उम्मीद की शमां जलाकर रखी है

ये हंसीं शमां भुझाने के लिए मत आना
सिर्फ एहसान जताने के लिए मत आना

प्यार की आग में जंज़ीरें पिघल सकती हैं
चाहने वालों की तक़दीरें बदल सकती हैं

हम हैं बेबस ये बताने के लिए मत आना
सिर्फ एहसान जताने के लिए मत आना

तुम आना जो मुझसे तुम्हें मोहब्बत है
आना अगर मुझसे मिलने की चाहत है

तुम कोई रसम निभाने मत आना
सिर्फ एहसान जताने के लिए मत आना

(जहाँ तक मेरी जानकारी है ये रचना ज़नाब ज़ावेद अख्तर साब की है.
कुछ पंक्तियाँ उनकी मूल रचना से अलग हैं.)

Friday, 8 July 2011

तुम एक बार आकर समझा दो दिल को

कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए
कि सूरज न डूबे
और चाँद भी जगमगाए
ज़मीन-ओ-आसमां जागते हों
सितारे इधर से उधर भागते हों
हवा पागलों की तरह
ढूंढती हो मुझे और न पाए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

फ़लक पर बिछा दे कोई रंगीन चादर
समां हो कि जैसे नहाए हुए
तेरे बालों पे बूंदें हैं
चमके हैं मोती
हवा तेरी खुशबू लिए सरसराए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

मुंडेरे से अपने उड़ाकर कबूतर
मेरी चाहत की जानिब कुछ यूं मुस्कुराकर
दुपट्टे के कोने को दांतों में दबाकर
ये तुमने कहा था कि मैं बनके बदरा
बरसूँगी एक दिन
न जाने घडी वो कब आए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

तुम्हारे लिए मुंतज़िर मेरी आँखें
बिछाए पलक में तकूँ तेरी राहें
बहुत बार ऐसे भी धोखा हुआ है
कि सपनों की बाहों में
आकर के तुमने
चूमा था माथा बड़ी पेशगी से
घटाओं की मानिंद लहरायीं ज़ुल्फें
वो संदल की खुशबू से महकी फिज़ाएं
था पुरनूर कैसा मेरा आशियाना
वो मेरी आँख से अब न जाए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

तुम्हारे लिए हैं ये नज़्में, ये ग़ज़लें
तुम्हारे ही दम से हैं सारे फ़साने
तुम्हारे लिए छंद, मुक्तक, रु'बाई
तुम्हीं मेरी गीता की अवधारणा हो
जियूं तुमको रगों में वो प्रेरणा हो
बहुत दूर हो तुम बहुत दूर हम हैं
कि हालात से अपने मज़बूर हम हैं
तुम एक बार आकर समझा दो दिल को
यूं ख़्वाबों में इसे न पागल जिया कर
न ख़्वाबों से अपने गिरेबान सिया कर
तू सपनों की माला में सपने पिरोकर
किसे ढूंढता है यूं सपनों में खोकर
तेरे वास्ते हैं न ज़ुल्फों के साए
लबों के तबस्सुम न महकी फिज़ाएं
तेरे वास्ते सिर्फ सपनों की दुनिया
नहीं तेरी खातिर है अपनों की दुनिया
ये सपने हैं पगले कभी सच न होंगे
मुझे है यक़ीं ये जो तुम आकर कहदो
मेरा दिल 'किशन' शौक़ से मान जाए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

Tuesday, 22 February 2011

... अब अच्छा हो गया कैसे?

जो बुरा था कभी अब हो गया अच्छा कैसे

वक़्त के साथ मैं इस तेज़ी से बदला कैसे।


जिनको वह्शत से इलाक़ा नहीं वे क्या जानें

बेकराँ दश्त मेरे हिस्से में आया कैसे।


कोई इक-आध सबब होता तो बतला देता

प्यास से टूट गया पानी का रिश्ता कैसे।


हाफ़िज़े में मेरे बस एक खंडहर-सा कुछ है

मैं बनाऊँ तो किसी शह्र का नक़्शा कैसे।


बारहा पूछना चाहा कभी हिम्मत न हुई

दोस्तो रास तुम्हें आई यह दुनिया कैसे।


ज़िन्दगी में कभी एक पल ही सही ग़ौर करो

ख़त्म हो जाता है जीने का तमाशा कैसे।

रचनाकार: शहरयार">शहरयार » संग्रह: शाम होने वाली है / शहरयार">शाम होने वाली है

Saturday, 9 October 2010

आवाज़...



मुद्दत हुआ कोई आवाज़ दिल को छूकर गई
मेरी हर सांस उसके होने की गवाही देती है

कितनी ही बार मैं भूला था उसे भूलने के लिए
आज भी गूँज उसकी इस सीने में सुनाई देती है

कभी पागल कभी आशिक़ कभी शायर मैं बना
उसकी झलक बंद पलकों को भी दिखाई देती है

सैकड़ों बार उसकी याद दिल में सजाई क़रीने से
उफ़! हर इल्म मुझे यार मेरे तेरी जुदाई देती है

किया जो याद तेरे बाद तुझे पाने को
हरेक शक्ल मुझे "तू" दिखाई देती है

Tuesday, 3 August 2010

ज़रूरत क्या थी..?

यूं हमको सताने की ज़रूरत क्या थी
दिल मेरा चुराने की ज़रूरत क्या थी

जो नहीं था इश्क़ तो कह दिया होता
होश मेरे उड़ने की ज़रूरत क्या थी

मालूम था अगर ये ख़ाब टूट जाएगा
नींदों में आकर जगाने की ज़रुरत क्या थी

मान लूं अगर ये एकतरफा मोहब्बत थी
फिर मुझे देखकर मुस्कुराने की ज़रुरत क्या थी

Thursday, 13 May 2010

कोई दिल चुराए तो क्या कीजिए

कोई दिल में आए तो क्या कीजिए
कोई दिल चुराए तो क्या कीजिए

ज़मीं पर खड़े हैं तो कुछ ग़म नहीं
कोई ज़न्नत दिखाए तो क्या कीजिए

हर कोई है मुफलिस यहाँ देखिए
कोई तमन्ना जगाए तो क्या कीजिए

नहीं कोई दूजा तुम्हारे बिना
कोई खाबों में आए तो क्या कीजिए

तुम्हीं तुम बसे हो नज़र में मेरे
कोई नज़रें चुराए तो क्या कीजिए

ये आंसू नहीं बूँद बारिश की हैं
कोई मतलब बताए तो क्या कीजिए

तुम कहते हो हम भूल जाते हैं सब
कोई भूला न जाए तो क्या कीजिए

चंद दिन की ये रौनक बिखर जाएगी
तुम्हें समझ में न आए तो क्या कीजिए

Friday, 23 April 2010

बहुत याद आया...

आज रूठा हुआ इक दोस्त बहुत याद आया,
आज गुज़रा हुआ कुछ वक़्त बहुत याद आया।

मेरी आँखों के हर एक अश्क़ पे रोने वाला,
आज जब आँख ये रोए तो बहुत याद आया।

जो मेरे दर्द को सीने में छिपा लेता था,
आज जब दर्द हुआ मुझको बहुत याद आया।

जो मेरी नज़रों में सुरमे की तरह बसता था,
आज सुरमा जो लगाया तो बहुत याद आया।

जो मेरे दिल के था क़रीब फ़क़त उसको ही,
आज जब दिल ने बुलाया तो बहुत याद आया॥

Thursday, 22 April 2010

मुझे काश कोई दीवाना मिले!

दुआ दो हमें भी ठिकाना मिले
परिंदों को भी आशियाना मिले

तबियत से मिलें मुझे मेरे दोस्त
मेरे दोस्तों से ज़माना मिले

तरसता हूँ नन्हें से लब की तरह
तबस्सुम का कोई बहाना मिले

चला हूँ सफ़र में, मैं ये सोच के
कोई मीत बिछड़ा पुराना मिले

अभी तो लगी है झड़ी ही झड़ी
कभी कोई मौसम सुहाना मिले

'किशन' मैं हूँ आशिक़ ज़रा दूसरा
मुझे काश कोई दीवाना मिले




Sunday, 11 April 2010

भीगी पलकों ने लूटा मेरा दामन!

मैं वो नहीं जिसकी तुम्हें तलाश है
मैं वो सागर हूं जिसको पानी की प्यास है

मैं वो साया हूं जो अंधेरे में साथ चलता हूं
मैं वो जुगनू हूं जिसे उजाले की तलाश है

भीगी पलकों ने लूटा मेरा दामन ''गौतम''
सदियां गुजर गईं लेकिन मुझे एहसास है

तुम जब नहीं आते थे तो दिल रोता था
अब मेरे सामने हो तो क्यों दिल उदास है

तुम्हें देखते थकती नहीं थी नजरें मेरी
जब से देखा है तुझे जाने क्यों ये दिल हताश है

Wednesday, 17 March 2010

तकलीफ़ों के पुतले हैं हम...

कौन किसके क़रीब होता है
सबका अपना नसीब होता है


डूब जाते हैं नाव यूँ ही कभी
कौन किसका रक़ीब होता है

लोग कहते हैं प्यार पूजा है
वो भी तो बदतमीज़ होता है

आप कहते हैं कि मैं तन्हां हूँ
कोई तो दिल अज़ीज़ होता है

तकलीफ़ों के पुतले हैं हम
दर्द भी क्या अज़ीब होता है

आप गुमनाम हैं एसा तो नहीं
हर जगह एक हबीब होता है

ज़िंदगी एक नया तक़ाज़ा है
आदमी बदनसीब होता है

Thursday, 4 March 2010

अपना सबकुछ गंवा के बैठ गए...


किसी की याद में खुद को भुला के बैठ गए
किसी बेवफा से दिल लगा के बैठ गए
*
पास के फायदों की खातिर हम
दूर के चोट खाके बैठ गए
**
बरस रही थी फिजा में शवाब जब एक दिन
उसी फिजा में हम अपने हाथ जला के बैठ गए
***
कौन कहता है जान जाती है
हम खुद सबों को बता के बैठ गए
****
उसकी चाहत में हो गए तन्हां
अपना सबकुछ गंवा के बैठ गए
*****
कहते थे वो कि मेरे अपने हैं
वो हमसे जी छुड़ा के बैठ गए
******
किसी की याद में खुद को भुला के बैठ गए
सरेआम किसी बेवफा से दिल लगा के बैठ गए

Ask - Ram Krishna Gautam "RAM"

Friday, 12 February 2010

गुमनाम ने खोने न दिया...

ये किसकी आहट थी जिसने मुझे सोने न दिया,
आशियाना लूट लिया इसपे भी रोने न दिया।

कारवां लेकर चला था मैं तो तेरी चौखट को,
मोती तेरे श्रृंगार को लाया पर तूने पिरोने न दिया।

कसमकस इतनी थी कि होश उड़ गए मेरे,
होश में लाने को अक्स मेरा तूने भिगोने न दिया।

बहार आई और एक पल में खो भी गई,
खोया मैं भी सरे राह पर गुमनाम ने खोने न दिया.
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