Tuesday 22 February 2011

... अब अच्छा हो गया कैसे?

जो बुरा था कभी अब हो गया अच्छा कैसे

वक़्त के साथ मैं इस तेज़ी से बदला कैसे।


जिनको वह्शत से इलाक़ा नहीं वे क्या जानें

बेकराँ दश्त मेरे हिस्से में आया कैसे।


कोई इक-आध सबब होता तो बतला देता

प्यास से टूट गया पानी का रिश्ता कैसे।


हाफ़िज़े में मेरे बस एक खंडहर-सा कुछ है

मैं बनाऊँ तो किसी शह्र का नक़्शा कैसे।


बारहा पूछना चाहा कभी हिम्मत न हुई

दोस्तो रास तुम्हें आई यह दुनिया कैसे।


ज़िन्दगी में कभी एक पल ही सही ग़ौर करो

ख़त्म हो जाता है जीने का तमाशा कैसे।

रचनाकार: शहरयार">शहरयार » संग्रह: शाम होने वाली है / शहरयार">शाम होने वाली है

1 comment:

kshama said...

कोई इक-आध सबब होता तो बतला देता

प्यास से टूट गया पानी का रिश्ता कैसे।
Wah! Kya gazab likha hai!

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