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Friday, 8 July 2011

तुम एक बार आकर समझा दो दिल को

कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए
कि सूरज न डूबे
और चाँद भी जगमगाए
ज़मीन-ओ-आसमां जागते हों
सितारे इधर से उधर भागते हों
हवा पागलों की तरह
ढूंढती हो मुझे और न पाए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

फ़लक पर बिछा दे कोई रंगीन चादर
समां हो कि जैसे नहाए हुए
तेरे बालों पे बूंदें हैं
चमके हैं मोती
हवा तेरी खुशबू लिए सरसराए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

मुंडेरे से अपने उड़ाकर कबूतर
मेरी चाहत की जानिब कुछ यूं मुस्कुराकर
दुपट्टे के कोने को दांतों में दबाकर
ये तुमने कहा था कि मैं बनके बदरा
बरसूँगी एक दिन
न जाने घडी वो कब आए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

तुम्हारे लिए मुंतज़िर मेरी आँखें
बिछाए पलक में तकूँ तेरी राहें
बहुत बार ऐसे भी धोखा हुआ है
कि सपनों की बाहों में
आकर के तुमने
चूमा था माथा बड़ी पेशगी से
घटाओं की मानिंद लहरायीं ज़ुल्फें
वो संदल की खुशबू से महकी फिज़ाएं
था पुरनूर कैसा मेरा आशियाना
वो मेरी आँख से अब न जाए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

तुम्हारे लिए हैं ये नज़्में, ये ग़ज़लें
तुम्हारे ही दम से हैं सारे फ़साने
तुम्हारे लिए छंद, मुक्तक, रु'बाई
तुम्हीं मेरी गीता की अवधारणा हो
जियूं तुमको रगों में वो प्रेरणा हो
बहुत दूर हो तुम बहुत दूर हम हैं
कि हालात से अपने मज़बूर हम हैं
तुम एक बार आकर समझा दो दिल को
यूं ख़्वाबों में इसे न पागल जिया कर
न ख़्वाबों से अपने गिरेबान सिया कर
तू सपनों की माला में सपने पिरोकर
किसे ढूंढता है यूं सपनों में खोकर
तेरे वास्ते हैं न ज़ुल्फों के साए
लबों के तबस्सुम न महकी फिज़ाएं
तेरे वास्ते सिर्फ सपनों की दुनिया
नहीं तेरी खातिर है अपनों की दुनिया
ये सपने हैं पगले कभी सच न होंगे
मुझे है यक़ीं ये जो तुम आकर कहदो
मेरा दिल 'किशन' शौक़ से मान जाए
कोई सुरमई शाम तो ऐसी आए

Tuesday, 3 August 2010

ज़रूरत क्या थी..?

यूं हमको सताने की ज़रूरत क्या थी
दिल मेरा चुराने की ज़रूरत क्या थी

जो नहीं था इश्क़ तो कह दिया होता
होश मेरे उड़ने की ज़रूरत क्या थी

मालूम था अगर ये ख़ाब टूट जाएगा
नींदों में आकर जगाने की ज़रुरत क्या थी

मान लूं अगर ये एकतरफा मोहब्बत थी
फिर मुझे देखकर मुस्कुराने की ज़रुरत क्या थी

Sunday, 18 July 2010

...बेखुदी नहीं आई!

सदा ग़म ही मिले, कभी ख़ुशी नहीं आई
हमने जब भी पुकारा, ज़िंदगी नहीं आई

रोज़ देखते हैं हम साथ रहने का ख़ाब
कभी जो हसरत की, हमनशीं नहीं आई

नसीब है किसी को यहाँ उम्रभर का ग़म
उम्र गुज़र गया हमें कभी बेरुखी नहीं आई

वो बात जो कहा था कभी देखके तुझे
उस बात का असर है, मुझे बेखुदी नहीं आई

Saturday, 5 June 2010

थोड़ी बहुत तो ज़हन में नाराज़गी रहे...

बदला न अपने आप को जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे

दुनिया न जीत पाओ तो हारो न ख़ुद को तुम
थोड़ी बहुत तो ज़हन में नाराज़गी रहे

अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी क़रीब रहे दूर ही रहे

गुज़रो जो बाग़ से तो दुआ माँगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे

निदा फ़ाज़ली

Thursday, 13 May 2010

कोई दिल चुराए तो क्या कीजिए

कोई दिल में आए तो क्या कीजिए
कोई दिल चुराए तो क्या कीजिए

ज़मीं पर खड़े हैं तो कुछ ग़म नहीं
कोई ज़न्नत दिखाए तो क्या कीजिए

हर कोई है मुफलिस यहाँ देखिए
कोई तमन्ना जगाए तो क्या कीजिए

नहीं कोई दूजा तुम्हारे बिना
कोई खाबों में आए तो क्या कीजिए

तुम्हीं तुम बसे हो नज़र में मेरे
कोई नज़रें चुराए तो क्या कीजिए

ये आंसू नहीं बूँद बारिश की हैं
कोई मतलब बताए तो क्या कीजिए

तुम कहते हो हम भूल जाते हैं सब
कोई भूला न जाए तो क्या कीजिए

चंद दिन की ये रौनक बिखर जाएगी
तुम्हें समझ में न आए तो क्या कीजिए

Thursday, 29 April 2010

सितम के बाद वक़्त आएगा वफाई का!

तेरी ही राह पे नज़रें लगाए बैठे हैं
कि अपने आप को पागल बनाए बैठे हैं

जब से देखा है तुझे देखते ही रहते हैं
तुम्हारी याद में नींदें गँवाए बैठे हैं

चमन में फूल खिलेंगे यहाँ कभी "गौतम"
इसी उम्मीद से हम मुस्कुराए बैठे हैं

निकल के कारवां जाने कहाँ रुकेगा फिर
हर एक पड़ाव को मंज़िल बनाए बैठे हैं

जो तुम न आए तो हैरत न होगी महफ़िल में
हम तो अपने दोस्तों को भी आजमाए बैठे हैं

सितम के बाद वक़्त आएगा वफाई का
इस बात का खुद को भरोसा दिलाए बैठे हैं

नज़र नज़र में बात होती रहे तो बेहतर है
कोई न समझे कि किसी बेवफा से दिल लगाए बैठे हैं

Friday, 23 April 2010

बहुत याद आया...

आज रूठा हुआ इक दोस्त बहुत याद आया,
आज गुज़रा हुआ कुछ वक़्त बहुत याद आया।

मेरी आँखों के हर एक अश्क़ पे रोने वाला,
आज जब आँख ये रोए तो बहुत याद आया।

जो मेरे दर्द को सीने में छिपा लेता था,
आज जब दर्द हुआ मुझको बहुत याद आया।

जो मेरी नज़रों में सुरमे की तरह बसता था,
आज सुरमा जो लगाया तो बहुत याद आया।

जो मेरे दिल के था क़रीब फ़क़त उसको ही,
आज जब दिल ने बुलाया तो बहुत याद आया॥

Sunday, 11 April 2010

भीगी पलकों ने लूटा मेरा दामन!

मैं वो नहीं जिसकी तुम्हें तलाश है
मैं वो सागर हूं जिसको पानी की प्यास है

मैं वो साया हूं जो अंधेरे में साथ चलता हूं
मैं वो जुगनू हूं जिसे उजाले की तलाश है

भीगी पलकों ने लूटा मेरा दामन ''गौतम''
सदियां गुजर गईं लेकिन मुझे एहसास है

तुम जब नहीं आते थे तो दिल रोता था
अब मेरे सामने हो तो क्यों दिल उदास है

तुम्हें देखते थकती नहीं थी नजरें मेरी
जब से देखा है तुझे जाने क्यों ये दिल हताश है

Sunday, 21 March 2010

तनहाइयों को अपना मुकद्दर बना लिया...

तनहाइयों को अपना मुकद्दर बना लिया
रुसवाइयों के साए में अपना घर बना लिया

सदियों से घुप अंधेरा पसरा रहा यहां
कुछ न मिला इन्हीं को सहर बना लिया

यूं तो नहीं है कोई दीवारो दर मेरा
पत्थर के झोपड़े को ही शहर बना लिया

कांटे बिछे हैं मेरे घर से तेरे घर तक
कंटीले रास्तों को फिर डगर बना लिया

कहते हैं "राम" जन्मा है बस गमों के लिए
इस कहासुनी को मैंने अमर बना लिया

Wednesday, 17 March 2010

तकलीफ़ों के पुतले हैं हम...

कौन किसके क़रीब होता है
सबका अपना नसीब होता है


डूब जाते हैं नाव यूँ ही कभी
कौन किसका रक़ीब होता है

लोग कहते हैं प्यार पूजा है
वो भी तो बदतमीज़ होता है

आप कहते हैं कि मैं तन्हां हूँ
कोई तो दिल अज़ीज़ होता है

तकलीफ़ों के पुतले हैं हम
दर्द भी क्या अज़ीब होता है

आप गुमनाम हैं एसा तो नहीं
हर जगह एक हबीब होता है

ज़िंदगी एक नया तक़ाज़ा है
आदमी बदनसीब होता है

Saturday, 6 March 2010

ज़ज्बात!

तेरी खुशी के लिए हमने गम उधार लिए
जाने कितनी बार तेरी खातिर लुटा बहार दिए

तुझे रोशनी देने को जलाया दिल अपना
तेरी सलामती को खुद ही जां निसार किए


हर सांस रखा तेरे कदमों के नीचे
चिलमन हटाकर छिप-छिपके तेरे दीदार किए

नजर न आई तुझे इश्क इस दीवाने की
तूने कितनी बार इस मासूम के शिकार किए



राम कृष्ण गौतम "राम"

Thursday, 4 March 2010

अपना सबकुछ गंवा के बैठ गए...


किसी की याद में खुद को भुला के बैठ गए
किसी बेवफा से दिल लगा के बैठ गए
*
पास के फायदों की खातिर हम
दूर के चोट खाके बैठ गए
**
बरस रही थी फिजा में शवाब जब एक दिन
उसी फिजा में हम अपने हाथ जला के बैठ गए
***
कौन कहता है जान जाती है
हम खुद सबों को बता के बैठ गए
****
उसकी चाहत में हो गए तन्हां
अपना सबकुछ गंवा के बैठ गए
*****
कहते थे वो कि मेरे अपने हैं
वो हमसे जी छुड़ा के बैठ गए
******
किसी की याद में खुद को भुला के बैठ गए
सरेआम किसी बेवफा से दिल लगा के बैठ गए

Ask - Ram Krishna Gautam "RAM"

Thursday, 25 February 2010

आवाज दे गया...

मेरे सोए ख्वाबों को आज कोई आवाज दे गया,
बेकस पंछी को कोई जैसे इक परवाज दे गया!

बहुत दिनों से मौन थी मेरे जीवन की रागिनी,
आकर उसको कोई जैसे एक नया फिर साज दे गया!

उठती नहीं थी मेरी निगाहें किसी दिलकश हसीं पर कभी,
उसे देखने का फिर कोई मुझे नया अन्दाज़ दे गया!

मुद्दतों से तलाश थी मुझको जिस हमराज की,
आज अपनी ज़िन्दगी का वो हमनशीं सा राज़ दे गया!

याद नहीं गुज़रा हो कोई खुशगंवार लम्हा जीवन में,
मुझ मुफलिस से रहगुज़र को आज कोई ताज दे गया!

रंज-ओ-ग़म के बोझ से था दिल दबा हुआ,
खुशी से मेरे जीवन को फिर कोई नया आगाज़ दे गया!

ज़िन्दा था मुद्दतों से किसी हसीन ग़म के पहलुओं में,
मुझको मेरे ख्वाबों की वो खूबसूरत मुमताज़ दे गया!!


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