माँ कहती थी बेटा लौट आओ!
वहां तुम्हे धूप की मार झेलनी होगी
बहुत थक जाओगे तुम काम करते-करते
तुम नहीं सह सकोगे तेज़ आँधियों के थपेड़े
तुम रात में ठीक से सो भी न सकोगे
बेटा! जहाँ तुम हो वहां रात ही नहीं होती
दिन का सूरज भी नसीब नहीं होगा तुम्हें
रात की चांदनी तो बहुत दूर की बात है
कैसे रह पाओगे तुम अपनी माँ के बिना
क्या इतने निष्ठुर हो गए हो तुम
माँ कहती थी हमेशा ऐसा ही बहुत कुछ
लेकिन मैं नहीं समझ पाया माँ की नसीहत
कितनी सही कहती थी माँ आज वैसा ही है
सामने नदी बहती है फिर भी प्यासा हूँ मैं
दरिया में डूबकर भी मैं भीग नहीं पा रहा
तब तो उसकी ममता की एक बूँद ही काफी थी
रोज़ लौटने का मन बनता हूँ लेकिन अफसोस
मन की बात मन में ही छिपकर रह जाती है
काश! तब मान ली होती माँ की बात
आज हर पल घुटना नहीं पड़ता मुझे
वक़्त कहता है अब बहुत देर हो गई है
तू यहीं रह, वापस जाने की सोचना भी मत!!!
लोग कहते हैं कि मेरा अंदाज़ शायराना हो गया है पर कितने ज़ख्म खाए हैं इस दिल पर तब जाकर ये अंदाज़ पाया है...
Friday 15 October 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
भाई राम कृष्ण जी,
सर्व प्रथम
विजय पर्व की
शुभ भावनाएँ स्वीकारें.
आपकी माँ के प्रति अभिव्यक्ति पढ़ी, फिर पढ़ी.
सच, माँ होती ही ऐसी है.
वो खुश नसीब होते हैं जिन्हें माँ का प्यार मिलता है
मैंने बहुत पहले कभी लिखा था , जो आज भी गुनगुना लेता हूँ:
युग बदले
युग-नेता बदले
बदला
सकल जहान
पर न बदला
इस दुनिया में
माँ का हृदय महान ....
आपका
- विजय तिवारी ' किसलय '
Post a Comment