Friday 17 June 2011

मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार

शाम का वक़्त है शाखों को हिलाता क्यों है
तू थके-मांदे परिंदों को उड़ाता क्यों है

वक़्त को कौन भला रोक सका है पगले
सुइयां घड़ियों की तू पीछे घुमाता क्यों है

स्वाद कैसा है पसीने का ये मजदूर से पूछ
छाँव में बैठकर अंदाज़ लगता क्यों है

मुझको सीने से लगाने में है तौहीन अगर
दोस्ती के लिए फिर हाथ बढ़ाता क्यों है

प्यार के रूप हैं सब त्याग-तपस्या-पूजा
इनमे अंतर का कोई प्रश्न उठाता क्यों है

मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार
इसका मतलब मेरे सुख-दुःख से लगाता क्यों है

8 comments:

Kunwar Kusumesh said...

बहुत बढ़िया जी बहुत बढ़िया.

Vandana Ramasingh said...

प्रत्येक शेर बार बार पढ़ने लायक ...साधुवाद

udaya veer singh said...

thanks for your intuition &humanitarian based thoughts. Realistic creation ../

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत खूबसूरत गज़ल ..हर आशारा अपने में अलग बात करता हुआ

Dr.J.P.Tiwari said...

मुझको सीने से लगाने में है तौहीन अगर
दोस्ती के लिए फिर हाथ बढ़ाता क्यों है

प्यार के रूप हैं सब त्याग-तपस्या-पूजा
इनमे अंतर का कोई प्रश्न उठाता क्यों है

More than Excellent.

अजय कुमार said...

स्वाद कैसा है पसीने का ये मजदूर से पूछ
छाँव में बैठकर अंदाज़ लगता क्यों है

बहुत खूबसूरत संदेश ,बधाई

दिगम्बर नासवा said...

वक़्त को कौन भला रोक सका है पगले
सुइयां घड़ियों की तू पीछे घुमाता क्यों है ..


सुभान अल्ला .. क्या ग़ज़ब के शेर निकाले हैं ... बहुत ही उम्दा ... हर शेर लाजवाब ...

M VERMA said...

स्वाद कैसा है पसीने का ये मजदूर से पूछ
छाँव में बैठकर अंदाज़ लगता क्यों है

बहुत सुन्दर

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