शाम का वक़्त है शाखों को हिलाता क्यों है
तू थके-मांदे परिंदों को उड़ाता क्यों है
वक़्त को कौन भला रोक सका है पगले
सुइयां घड़ियों की तू पीछे घुमाता क्यों है
स्वाद कैसा है पसीने का ये मजदूर से पूछ
छाँव में बैठकर अंदाज़ लगता क्यों है
मुझको सीने से लगाने में है तौहीन अगर
दोस्ती के लिए फिर हाथ बढ़ाता क्यों है
प्यार के रूप हैं सब त्याग-तपस्या-पूजा
इनमे अंतर का कोई प्रश्न उठाता क्यों है
मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार
इसका मतलब मेरे सुख-दुःख से लगाता क्यों है
तू थके-मांदे परिंदों को उड़ाता क्यों है
वक़्त को कौन भला रोक सका है पगले
सुइयां घड़ियों की तू पीछे घुमाता क्यों है
स्वाद कैसा है पसीने का ये मजदूर से पूछ
छाँव में बैठकर अंदाज़ लगता क्यों है
मुझको सीने से लगाने में है तौहीन अगर
दोस्ती के लिए फिर हाथ बढ़ाता क्यों है
प्यार के रूप हैं सब त्याग-तपस्या-पूजा
इनमे अंतर का कोई प्रश्न उठाता क्यों है
मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार
इसका मतलब मेरे सुख-दुःख से लगाता क्यों है
8 comments:
बहुत बढ़िया जी बहुत बढ़िया.
प्रत्येक शेर बार बार पढ़ने लायक ...साधुवाद
thanks for your intuition &humanitarian based thoughts. Realistic creation ../
बहुत खूबसूरत गज़ल ..हर आशारा अपने में अलग बात करता हुआ
मुझको सीने से लगाने में है तौहीन अगर
दोस्ती के लिए फिर हाथ बढ़ाता क्यों है
प्यार के रूप हैं सब त्याग-तपस्या-पूजा
इनमे अंतर का कोई प्रश्न उठाता क्यों है
More than Excellent.
स्वाद कैसा है पसीने का ये मजदूर से पूछ
छाँव में बैठकर अंदाज़ लगता क्यों है
बहुत खूबसूरत संदेश ,बधाई
वक़्त को कौन भला रोक सका है पगले
सुइयां घड़ियों की तू पीछे घुमाता क्यों है ..
सुभान अल्ला .. क्या ग़ज़ब के शेर निकाले हैं ... बहुत ही उम्दा ... हर शेर लाजवाब ...
स्वाद कैसा है पसीने का ये मजदूर से पूछ
छाँव में बैठकर अंदाज़ लगता क्यों है
बहुत सुन्दर
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