शाख से अपनी हर एक फूल ख़फ़ा है अब भी
हाल गुलशन का मेरे दोस्त बुरा है अब भी
दाग हर दौर को जिससे नज़र आया तुझमें
शायद वो क़िस्सा तेरे साथ जुड़ा है अब भी
उसका दावा है ग़लत ये तो नहीं कहते हम
ज़िंदगी अपनी मगर एक सज़ा है अब भी
मैं जी उठता हूँ मरकर भी तो लगता है मुझे
मेरे हमराह बुजुर्गों की दुआ है अब भी
है हवा में जो घुटन उसका मतलब है यही
मुझसे जो रूठ गया था वो ख़फ़ा है अब भी
क्या ख़बर थी कि किसी रोज़ बिछड़ जाएंगे
तेरे आने की एक उम्मीद लगी है अब भी
जुबां ख़ामोश, चस्म-ऐ-तर, घटा है दर्द की छाई
मेरे सीने में एक आह दबी है अब भी
लोग कहते हैं कि मेरा अंदाज़ शायराना हो गया है पर कितने ज़ख्म खाए हैं इस दिल पर तब जाकर ये अंदाज़ पाया है...
Sunday, 3 July 2011
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