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Monday 30 May 2011

ज़रा खुल के बरस...




जरा खुल के बरस, अभी रोने के दिन हैं
जमीं तर हो कि कुछ बोने के दिन हैं

कसक उठे कि कुछ पाने के दिन हैं
जिगर में आग लग जाने के दिन हैं

खिलौना छोड़ कि गए बचपन के दिन हैं
हो दुश्मन सामने तो रण के दिन हैं

नहीं आफताब से बहल जाने के दिन हैं
ये मेहताब निगल जाने के दिन हैं

कलेजा चाक करके मुस्कुराने के दिन हैं
सफ़र में ठोकरें खाने के दिन हैं

तमाशाई नहीं तमाशा बन जाने के दिन हैं
बिगड़-बिगड़ के बन जाने के दिन हैं

न दवा न दुआ, बस चोट खाने के दिन हैं
सब्ज़ ज़ख्मों में नस्तर उतर जाने के दिन हैं

नहीं सज़दे में सर झुकाने के दिन हैं
अभी तो खुदा को भूल जाने के दिन हैं

अपनी पेशाने पे हल चलाने के दिन हैं
कि अपनी तक़दीर खुद बनाने के दिन हैं

Thursday 26 May 2011

हमसफ़र

हमसफ़र किसे कहें
जो साथ चले उसे
या
जो साथ दे

जो साथ दे
वो साथ है
इस बात का
कोई भरोसा तो नहीं
लेकिन
जो साथ चले
उसने साथ चलकर
सबूत दिया है
साथ होने का

मगर प्यार को
किसी सबूत की
जरूरत नहीं होती
ये भी तो सच है ना?

फिर जो साथ दे उससे
भरोसे की उम्मीद तो
कर ही सकते हैं!!

Tuesday 5 April 2011

कोई हरजाई बन गया

किया इश्क था जो बा-इसे रुसवाई बन गया

यारो तमाम शहर तमाशाई बन गया


बिन मांगे मिल गए मेरी आंखों को रतजगे

मैं जब से एक चाँद का शैदाई बन गया


देखा जो उसका दस्त--हिनाई करीब से

अहसास गूंजती हुई शहनाई बन गया


बरहम हुआ था मेरी किसी बात पर कोई

वो हादसा ही वजह--शानासाई बन गया


करता रहा जो रोज़ मुझे उस से बदगुमां

वो शख्स भी अब उसका तमन्नाई बन गया


वो तेरी भी तो पहली मुहब्बत थी "क़तील"

फिर क्या हुआ अगर कोई हरजाई बन गया


- क़तील शिफाई

Saturday 26 March 2011

... वो पत्थर ही होगा !!




राह में फूल बिछे होंगे
न सोचा मैंने कभी, न तू सोच
कुछ मिले न मिले
ये पत्थर तो हर जगह हैं ही
खुद से न किसी से शिकायत कोई
कि जो मेरी तरफ आएगा
वो पत्थर ही होगा



साभार :- इन्दू जी

Monday 21 March 2011

चांद और मैं...




कल चांद धरती के करीब था

और मन में आया मैं उसे छू लूं


मैं ऐसा कर पाता उससे पहले ही

तुम्हारी यादों ने मुझे घेर लिया


फिर से क़ैद नहीं होना चाहता

तुम्हारी यादों की ज़ंजीर में


अब मैं वापस नहीं लौटना चाहता

वहीं जहाँ हम अक्सर मिलते थे


ये तुम भी जानती हो

तुम्हारी यादों को

मिटाने के लिए

मुझे अपनी हर

ख्वाहिश दबानी होगी


हर आरज़ू भी मिटानी होगी

फिर भी तुम कुछ नहीं करोगी


अब तो तुम मुझ पर

अपना अधिकार

ही नहीं समझती ना

तुमने खुद ही

अलग किया है मुझे


बस, यही सोचत-सोचते

चांद की शीतलता

सूरज का आग बन गई

ठीक वैसे ही जैसे

तुम्हारे आने की ख़ुशी ने

तुम्हारे जाने के ग़म का

रूप धरा था...

Wednesday 2 March 2011

फिर से तू बच्चा कर दे...

ख़ुदा इससे पहले कि मौत मुझे रुसवा कर दे
तू मेरी रूह मेरे ज़िस्म को अच्छा कर दे

ये जो हालत है मेरी मैंने ही बनाई है
इसे जैसा तू चाहता है अब वैसा कर दे

मेरे हर फैसले में तेरी रज़ा शामिल हो
जो तेरा हुक्म हो वो मेरा इरादा कर दे

मुझमें जो बीमार है उसको तू अच्छा कर दे
सुनले एक गुजारिश मुझे फिर से तू बच्चा कर दे!!

Thursday 24 February 2011

शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं...

शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है

रिश्ता ही मेरी प्यास का पानी से नहीं है।


कल यूँ था कि ये क़ैदे-ज़्मानी से थे बेज़ार

फ़ुर्सत जिन्हें अब सैरे-मकानी से नहीं है।


चाहा तो यकीं आए न सच्चाई पे इसकी

ख़ाइफ़ कोई गुल अहदे-खिज़ानी से नहीं है।


दोहराता नहीं मैं भी गए लोगों की बातें

इस दौर को निस्बत भी कहानी से नहीं है।


कहते हैं मेरे हक़ में सुख़नफ़ह्म बस इतना

शे'रों में जो ख़ूबी है मआनी से नहीं है।



शब्दार्थ :

क़ैदे-ज़मानी=समय की पाबन्दी;
सैरे-मकानी=दुनिया की सैर;
ख़ाइफ़=डरा हुआ;
अहदे-ख़िज़ानी=पतझड़ का मौसम;
मआनी=अर्थ

» रचनाकार: शहरयार
» संग्रह: शाम

Tuesday 15 February 2011

फ़िज़ा में दूर तक मरहबा के नारे हैं





कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कि आज धूप नहीं निकली आफ़ताब के साथ

तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ

बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम, रात बसर की किसी गुलाब के साथ

फ़िज़ा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
गुज़रने वाले हैं कुछ लोग यहाँ से ख़्वाब के साथ

ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको
गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ


रचनाकार: शहरयार
संग्रह: शाम होने वाली है

Sunday 13 February 2011

याद आऊंगा


आईना सामने रक्खोगे तो याद आऊंगा
अपनी
ज़ुल्फ़ों को सँवारोगे तो याद आऊंगा

रंग
कैसा हो, ये सोचोगे तो याद आऊंगा
जब
नया सूट ख़रीदोगे तो याद आऊंगा

भूल जाना मुझे आसान नहीं है इतना
जब
मुझे भूलना चाहोगे तो याद आऊंगा

ध्यान
हर हाल में जाये गा मिरी ही जानिब
तुम
जो पूजा में भी बैठोगे तो याद आऊंगा


एक
दिन भीगे थे बरसात में हम तुम दोनों
अब
जो बरसात में भीगोगे तो याद आऊंगा

चांदनी
रात में, फूलों की सुहानी रुत में
जब
कभी सैर को निकलोगे तो याद आऊंगा

जिन
में मिल जाते थे हम तुम कभी आते जाते
जब
भी उन गलियों से गुज़रोगे तो याद आऊंगा

याद आऊंगा उदासी की जो रुत आएगी
जब
कोई जश्न मनाओगे तो याद आऊंगा

शैल्फ़
में रक्खी हुई अपनी किताबों में से
कोई
दीवान उठाओगे तो याद आऊंगा

शमा की लौ पे सरे-शाम सुलगते जलते
किसी
परवाने को देखोगे तो याद आऊंगा

Friday 21 January 2011

कोई रोता रहा था याद होगा

ग़ज़ल का सिलसिला था याद होगा
वो जो इक ख़्वाब-सा था याद होगा

बहारें-ही-बहारें नाचती थीं
हमारा भी खुदा था याद होगा

समन्दर के किनारे सीपियों से
किसी ने दिल लिखा था याद होगा

लबों पर चुप-सी रहती है हमेशा
कोई वादा हुआ था, याद होगा

तुम्हारे भूलने को याद करके
कोई रोता रहा था याद होगा

बगल में थे हमारे घर तो लेकिन
ग़ज़ब का फ़ासला था याद होगा

हमारा हाल तो सब जानते हैं
हमारा हाल क्या था याद होगा

रचनाकार: तुफ़ैल चतुर्वेदी

Thursday 20 January 2011

काश! ताजमहल बन जाऊं..?

आँसू ने कहा मुझको ठहरने दो पलक पर
आँखों को तेरी देख सकूँ और झलक भर


मैं जानता हूँ तुमको कोई ज़ख़्म बड़ा है
फूटेगा किसी रोज़ तो हर एक घड़ा है

लेकिन तड़प किताब के भीतर का फूल है
किसने सहेज कर रखा कोई भी शूल है

आसान है हर गम के पन्नों को पलट दो
फिर जीस्त पर रंगीन सा एक नया कवर दो

गुल की कलम लगाओ, तोता खरीद लाओ
तारों को फूल जैसे सारे बिखेर डालो

मुस्कान की चाबी से घर चाँद का भी खोलो
चाहो तो सूखी आँखों से मन के पास रो लो

लेकिन जो मर गये हैं, वो सपने सहेजते हो
फिर ताजमहल बनकर जीने की हसरते हैं

अपने लहू से गुल को रंगीन कर रहे हो
सुकरात जैसा प्याला पीने की हसरते हैं

तुम मुस्कुरा रहे हो, मैं हो रहा हूँ आतुर
मैं कीमती हूँ कितना, तुमको पता नहीं है

लेकिन कि ठहरता हूँ, पारस है आँख तेरी
बुझती नहीं है सागर, क्योंकर के प्यास मेरी

मैं चाहता हूँ ठहरूँ, उस कोर... वहीं पर
आँखों को तेरी देख सकूँ, और झलक भर...

Monday 17 January 2011

जिसे भूले वो सदा याद आया


जो भी दुख याद था याद आया
आज क्या जानिए क्या याद आया

फिर कोई हाथ है दिल पर जैसे
फिर तेरा अहदे-वफ़ा[1]याद आया

जिस तरह धुंध में लिपटे हुए फूल
एक-इक नक़्श[2]तिरा याद आया

ऐसी मजबूरी के आलम[3]में कोई
याद आया भी तो क्या याद आया

रफ़ीक़ो[4]! सरे-मंज़िल जाकर
क्या कोई आबला-पा[5]याद आया

याद आया था बिछड़ना तेरा
फिर नहीं याद कि क्या याद आया

जब कोई ज़ख़्म भरा दाग़ बना
जब कोई भूल गया याद आया

ये मुहब्बत भी है क्या रोगफ़राज़
जिसको भूले वो सदा याद आया

शब्दार्थ:

1. ↑ वफ़ादारी का प्रण
2. ↑ मुखाकृति
3. ↑ हालत,अवस्था
4. ↑ मित्रो
5. ↑ जिसके पाँवों में छाले पड़े हुए हों


रचनाकार : फ़राज़

Saturday 15 January 2011

मुझे सताना छोड़ दे


उससे कह दो मुझे सताना छोड़ दे
दूसरों के साथ रहकर मुझे हर पल जलाना छोड़ दे

या तो कर दे इनकार मुझसे महोब्बत नहीं
या गुजरता देख मुझको पलटकर मुस्कुराना छोड़ दे

ना कर बात मुझसे कोई गम नहीं
यूँ आवाज सुनकर मेरी झरोखे पर आना छोड़ दे

कर दे दिल-ए-बयां जो छिपा रखा है
यूँ इशारों में हाल बताना छोड़ दे

क्या इरादा है बता दे अब मुझे
यूँ दोस्तों को मेरे किस्से सुनाना छोड़ दे

है पसंद मुझको जो लिबास तेरा
उस लिबास में बार-बार आना छोड़ दे

ना कर याद मुझे बेशक तू
पर किताबो पर नाम लिखकर मिटाना छोड़ दे

खुदा कर सके ये किस्सा आसान अगर
या तो तू मेरी हो जा या मुझे अपना बनाना छोड़ दे

Friday 7 January 2011

आदत हो गई है..!

उसे मुझे सताने की आदत हो गई है
दिल मेरा दुखाने की आदत हो गई है

वो जानती है मैं उस पर मरता हूँ फिर भी
दिल मेरा जलाने की आदत हो गई है

उसे ये भी पता है मैं उसे मुस्कुराते देखना चाहता हूँ
पर मुझे देखकर उसे मुंह फिराने की आदत हो गई है

उसका ज़िक्र आते ही मैं खो सा जाता हूँ कहीं
मेरी बात आते ही उसे बातें बनाने की आदत हो गई है

वो रातों को जागती है अक़सर मुझे याद करके
मगर जागने की झूठी वज़ह बताने की आदत हो गई है

उस पर ऐतबार इतना है कि कह नहीं सकता
पर उसे मुझसे नज़रें चुराने की आदत हो गई है

वो मेरा ख़ुदा तो नहीं पर ख़ुदा से कम भी नहीं
पर उसे मुझसे दूर जाने की आदत हो गई है

"इस पर भी देखिए मेरी चाहत का आलम
मुझे उसकी इस आदत से भी मोहब्बत हो गई है"

Tuesday 28 December 2010

माँ...

माँ.. तू जो नही है तो...


मेरा बचपन था मेरा घर था खिलौने थे मेरे
सर पे माँ बाप का साया भी ग़ज़ल जैसा था
मुक़द्दस मुस्कुराहट माँ के होंठों पर लरज़ती है
किसी बच्चे का जब पहला सिपारा ख़त्म होता है
मैं वो मेले में भटकता हुआ इक बच्चा हूँ
जिसके माँ बाप को रोते हुए मर जाना है
घेर लेने को मुझे जब भी बलाएँ आ गईं
ढाल बन कर सामने माँ की दुआएँ आ गईं
मिट्टी लिपट—लिपट गई पैरों से इसलिए
तैयार हो के भी कभी हिजरत न कर सके
मुफ़लिसी! बच्चे को रोने नहीं देना वरना
एक आँसू भरे बाज़ार को खा जाएगा...

Saturday 25 December 2010

खुद से डर गया हूँ मैं...

एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं
कैसे अपनी हँसी को ज़ब्त करूँ
सुन रहा हूँ के घर गया हूँ मैं
क्या बताऊँ के मर नहीं पाता
जीते जी जब से मर गया हूँ मैं
अब है बस अपना सामना दरपे
शहर किसी से गुज़र गया हूँ मैं
वो ही नाज़--अदा, वो ही घमजे
सर--सर आप पर गया हूँ मैं
अजब इल्ज़ाम हूँ ज़माने का
के यहाँ सब के सर गया हूँ मैं
कभी खुद तक पहुँच नहीं पाया
जब के वाँ उम्र भर गया हूँ मैं
तुम से जानां मिला हूँ जिस दिन से
बे-तरह, खुद से डर गया हूँ मैं...

Tuesday 21 December 2010

दर्द के सिवाय कुछ नहीं!


यह बेवकूफ़ी है!
समझदारी कहती है
यह वो है जो वो है
प्यार कहता है
यह बदक़िस्मती है
हिसाब कहता है
यह दर्द के सिवाय
कुछ नहीं है
डर कहता है
यह उम्मीदों से खाली है
बुद्धिमानी कहती है
यह वो है जो वो है
प्यार कहता है
यह बेतुका है
अभिमान कहता है
यह लापरवाही है
सावधानी कहती है
यह नामुमकिन है
तजुर्बा कहता है
यह वो है जो
प्यार कहता है!

Sunday 19 December 2010

कुछ चुभ रहा है..!



वो "हमें" चाहते हुए भी न जाने
क्यों दूर जाना चाहती थी...
न जाने क्यों अपनी
निगाहों से हटाना चाहती थी...
मिलती थी, बातें भी करती थी पर
अनजानों की तरह...
एक दिन गुमसुम
अकेले रो रही थी...
मैं भी वहीं था...
मैंने पूछा क्या हुआ...
क्यों रो रही हो?
उसने रोती हुई निगाहों से
मेरी ओर देखकर कहा
कुछ नहीं! बस आँखों में कुछ चुभ रहा है..!

Saturday 18 December 2010

सफर भी लगे अब फसाने के जैसे!

रुखसत से होकर बैठे हैं ऐसे
खुशियाँ मिली हों ज़माने की जैसे,
नुमाइश भी कोई नहीं करने वाला
सूरत भी नहीं मेरी दीवाने के जैसे,
मैं चुपचाप सहमा हूँ बैठा कहीं पे
कोई भी नहीं है मुझे सुनने वाला,
सभी पूछते हैं हुआ क्या है तुझको
तेरी शक्ल क्यों है रुलाने के जैसे,
जब निकला था घर से बहुत हौसला था
के पा लूँगा मंजिल डगर चलते-चलते,
अब हौसला है अब रस्ते हैं
सफर भी लगे अब फसाने के जैसे!
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