कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कि आज धूप नहीं निकली आफ़ताब के साथ
तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ
बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम, रात बसर की किसी गुलाब के साथ
फ़िज़ा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
गुज़रने वाले हैं कुछ लोग यहाँ से ख़्वाब के साथ
ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको
गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ
रचनाकार: शहरयार
संग्रह: शाम होने वाली है
संग्रह: शाम होने वाली है
2 comments:
"फ़िज़ा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
गुज़रने वाले हैं कुछ लोग यहाँ से ख़्वाब के साथ"
वाह ... बहुत खूब
बहुत उम्दा ग़ज़ल है
बधाई / आभार
''मिलिए रेखाओं के अप्रतिम जादूगर से.....'
बहुत अच्छी रचना।
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