Monday, 30 May 2011

ज़रा खुल के बरस...




जरा खुल के बरस, अभी रोने के दिन हैं
जमीं तर हो कि कुछ बोने के दिन हैं

कसक उठे कि कुछ पाने के दिन हैं
जिगर में आग लग जाने के दिन हैं

खिलौना छोड़ कि गए बचपन के दिन हैं
हो दुश्मन सामने तो रण के दिन हैं

नहीं आफताब से बहल जाने के दिन हैं
ये मेहताब निगल जाने के दिन हैं

कलेजा चाक करके मुस्कुराने के दिन हैं
सफ़र में ठोकरें खाने के दिन हैं

तमाशाई नहीं तमाशा बन जाने के दिन हैं
बिगड़-बिगड़ के बन जाने के दिन हैं

न दवा न दुआ, बस चोट खाने के दिन हैं
सब्ज़ ज़ख्मों में नस्तर उतर जाने के दिन हैं

नहीं सज़दे में सर झुकाने के दिन हैं
अभी तो खुदा को भूल जाने के दिन हैं

अपनी पेशाने पे हल चलाने के दिन हैं
कि अपनी तक़दीर खुद बनाने के दिन हैं

1 comment:

daanish said...

मन की गहरी ख्वाहिशों के लिए
कहे गये खूबसूरत अलफ़ाज़ ...
एक अलग ही तरह की अनूठी रचना
इक अलग सा ही प्रभाव लिए हुए.. वाह

कलेजा चाक करके मुस्कुराने के दिन हैं
सफ़र में ठोकरें खाने के दिन हैं
अछा लगा !!

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