Thursday, 20 January 2011

काश! ताजमहल बन जाऊं..?

आँसू ने कहा मुझको ठहरने दो पलक पर
आँखों को तेरी देख सकूँ और झलक भर


मैं जानता हूँ तुमको कोई ज़ख़्म बड़ा है
फूटेगा किसी रोज़ तो हर एक घड़ा है

लेकिन तड़प किताब के भीतर का फूल है
किसने सहेज कर रखा कोई भी शूल है

आसान है हर गम के पन्नों को पलट दो
फिर जीस्त पर रंगीन सा एक नया कवर दो

गुल की कलम लगाओ, तोता खरीद लाओ
तारों को फूल जैसे सारे बिखेर डालो

मुस्कान की चाबी से घर चाँद का भी खोलो
चाहो तो सूखी आँखों से मन के पास रो लो

लेकिन जो मर गये हैं, वो सपने सहेजते हो
फिर ताजमहल बनकर जीने की हसरते हैं

अपने लहू से गुल को रंगीन कर रहे हो
सुकरात जैसा प्याला पीने की हसरते हैं

तुम मुस्कुरा रहे हो, मैं हो रहा हूँ आतुर
मैं कीमती हूँ कितना, तुमको पता नहीं है

लेकिन कि ठहरता हूँ, पारस है आँख तेरी
बुझती नहीं है सागर, क्योंकर के प्यास मेरी

मैं चाहता हूँ ठहरूँ, उस कोर... वहीं पर
आँखों को तेरी देख सकूँ, और झलक भर...

1 comment:

Deepesh Gautam said...

बहुत बढ़िया रचना लिखी है, बधाई हो आपको |

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