कल चांद धरती के करीब था
और मन में आया मैं उसे छू लूं
मैं ऐसा कर पाता उससे पहले ही
तुम्हारी यादों ने मुझे घेर लिया
फिर से क़ैद नहीं होना चाहता
तुम्हारी यादों की ज़ंजीर में
अब मैं वापस नहीं लौटना चाहता
वहीं जहाँ हम अक्सर मिलते थे
ये तुम भी जानती हो
तुम्हारी यादों को
मिटाने के लिए
मुझे अपनी हर
ख्वाहिश दबानी होगी
हर आरज़ू भी मिटानी होगी
फिर भी तुम कुछ नहीं करोगी
अब तो तुम मुझ पर
अपना अधिकार
ही नहीं समझती ना
तुमने खुद ही
अलग किया है मुझे
बस, यही सोचत-सोचते
चांद की शीतलता
सूरज का आग बन गई
ठीक वैसे ही जैसे
तुम्हारे आने की ख़ुशी ने
तुम्हारे जाने के ग़म का
रूप धरा था...
4 comments:
चंद ke badle "chaand"kar len to aapkee rachana ko chaar chaand lag jayenge!
Bahut khoob!
मन के एहसास बखूबी लिखे हैं ..
बहुत सुन्दर!!
jab suni thi tab bhi acchi lagi thi aur aaj jab padh rahi hu tab bhi abbhi lag rahi hai....
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