मैं आग हूँ
मेरे अन्दर छिपी है
असीमित ज्वाला,
काफी समय से मैंने
इस ज्वाला को भीतर ही
संभालकर रखा है,
जब भी देखता हूँ
इस दुनिया में बेकारी
ये ज्वाला फूटने को
तैयार रहता है,
जब भी सुनता हूँ
किसी नेता की करतूत
ये ज्वाला उसे जलाने को
भड़क उठता है,
जब कभी होता है
मेरा ग़रीबी से सामना
मैं हो जाता हूँ बेसुध,
मेरी ज्वाला हर रोज़
भड़क उठती है
जब मैं देखता हूँ
हर गली में अतिक्रमण,
कई बार तो
इस ज्वाला को
रोकने की कोशिश में
मेरे ही हाथ
झुलस जाते हैं,
लेकिन धन्य हैं
भृष्टाचार के साथी
जो इस ज्वाला को
भड़काने से
बाज नहीं आते हैं...
लोग कहते हैं कि मेरा अंदाज़ शायराना हो गया है पर कितने ज़ख्म खाए हैं इस दिल पर तब जाकर ये अंदाज़ पाया है...
Sunday, 7 February 2010
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4 comments:
Bahut hi sundar kavita .
आपकी यह रचना बहुत ही अच्छी लगी.
bahut achchi rachna hai ye aapki...
ये बात तो मैं तब से जनता हूँ, जब तुम छोटे थे दोस्त! मैंने कई बार महसूस किया है कि तुम वाकई आग हो!!!
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