कोई चाहत, कोई हसरत भी नहीं
क्यूँ सुकूँ दिल को मेरे फिर भी नहीं
जाने क्यूँ मिलती रही उसकी सज़ा
जो ख़ता हमने अभी तक की नहीं
हम भला हसरत किसी की क्या करें
हमको तो दरकार अपनी भी नहीं
तुम मआ'नी मौत के समझोगे क्या
ज़िन्दगी तो तुमने अब तक जी नहीं
शिद्दतों से हैं सहेजे हमने ग़म
थी ख़ुशी भी पर हमीं ने ली नहीं
लोग कहते हैं कि मेरा अंदाज़ शायराना हो गया है पर कितने ज़ख्म खाए हैं इस दिल पर तब जाकर ये अंदाज़ पाया है...
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2 comments:
बढिया अंदाज़ है साहब, काफिया 'भी नहीं' का हो तो ज्यादा जमेंगा हमारे ख्याल में ...
लिखते रहिये ....
शिद्दतों से हैं सहेजे हमने ग़म
थी ख़ुशी भी पर हमीं ने ली नहीं
Aah! Kya gazab gazal kahi hai!
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