मैं जाने क्या सोचता हूँ!
हर वक़्त, हर पल
बस सोचता ही रहता हूँ
सेकेण्ड के सौवें हिस्से में
न जाने कितने अनगिनत
विचार आते हैं मेरे मन में
कभी कभी तो मैं खुद को
एक "पागल" की तरह
महसूस करता हूँ
लेकिन ये "पागलपन" का अनुभव
मुझे देता है
एक अभिनव शांति
लेकिन जब मैं फिर
"होश" में आता हूँ
तो देखता हूँ कि
एक बार फिर
मैं उसी जगह
आ पहुंचा हूँ जहाँ
घोर अशांति फैली हुई है
एक बार फिर
मैं लाचार हूँ
सोचने के अलावा
मैं कुछ नहीं कर पाता
बस सोचता ही रहता हूँ
न जाने क्या?
फिर मैं सोचता हूँ कि
"होश" की इस "लाचारी" से
"पागलपन" की वो "बेकारी" ही ठीक है
कम से कम
उस "बेहोशी" में मैं
शांति का अनुभव तो कर लेता हूँ!
लोग कहते हैं कि मेरा अंदाज़ शायराना हो गया है पर कितने ज़ख्म खाए हैं इस दिल पर तब जाकर ये अंदाज़ पाया है...
Tuesday, 9 February 2010
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4 comments:
युवा मन का जीवंत चित्रण किया है आपने . अक्सर हमारे -आपके जीवन में ऐसा ही कुछ होता है . दिमाग में चाल रहे केमिकल लोचा इस हद से गुजर जाता है कि सच वो पागलपन वो मुफलिसी ही हमें अच्छी लगने लगती है . किसी के प्यार में पागल , देश की चिंता में पागल ,समाज की स्कोह में पागल , अधिक से अधिक सफलता पाने की सोच में पागल आज हर कोई पागल ही तो है . युवापन में यह सनक तो होती ही है जिसे हम सभी महसूस करते हैं .
ग़ज़ब का पागलपन है भाई! वैसे मैं भी कभी काभी अपने अन्दर ऐसा ही पागलपन महसूस करता हूँ!
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