एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं
कैसे अपनी हँसी को ज़ब्त करूँ
सुन रहा हूँ के घर गया हूँ मैं
क्या बताऊँ के मर नहीं पाता
जीते जी जब से मर गया हूँ मैं
अब है बस अपना सामना दरपे
शहर किसी से गुज़र गया हूँ मैं
वो ही नाज़-ओ-अदा, वो ही घमजे
सर-ब-सर आप पर गया हूँ मैं
अजब इल्ज़ाम हूँ ज़माने का
के यहाँ सब के सर गया हूँ मैं
कभी खुद तक पहुँच नहीं पाया
जब के वाँ उम्र भर गया हूँ मैं
तुम से जानां मिला हूँ जिस दिन से
बे-तरह, खुद से डर गया हूँ मैं...
लोग कहते हैं कि मेरा अंदाज़ शायराना हो गया है पर कितने ज़ख्म खाए हैं इस दिल पर तब जाकर ये अंदाज़ पाया है...
Saturday, 25 December 2010
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3 comments:
आज कल आप की सारी कविताये इतनी उदासी भरी क्यों है गौतम जी?
खुश रहा करीए ..खुद से डरकर इंसान कहाँ जायेगा..खुद को पहचानिये आप में बहुत सी संभावनाएं हैं.
हाँ,लिखते रहीये,शुभकामनाएँ
उदास सी गज़ल ...
यहाँ आपका स्वागत है
गुननाम
हाँ! आपने सही कहा अल्पना जी... इन दिनों मैं ग़म की पंक्तियाँ ज्यादा लिख रहा हूँ, पढ़ रहा हूँ.. लेकिन उदास नहीं हूँ... मैं खुश हूँ... हमेशा खुश रहता हूँ... धन्यवाद आपके सुझाव के लिए...
साभार
"राम"
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