यूं न मिल मुझसे ख़फ़ा हो
जैसे
साथ चल मौज-ऐ-सबा हो जैसे
लोग यूं देख के हंस देते हैं
तू मुझे भूल गया हो जैसे
इश्क़ को शिर्क की हद तक न बढ़ा
यूं न मिल हमसे खुदा हो जैसे
मौत भी आएगी तो इस नाज़ के साथ
मुझ पे एहसान किया हो जैसे
ऐसे अनजान बने बैठे हो
तुम को कुछ भी न पता हो जैसे
हिचकियाँ रात को आती हैं बहुत
तूने फिर याद किया हो जैसे
ज़िन्दगी बीत रही अब "गौतम"
एक बेज़ुर्म सज़ा हो जैसे...
साथ चल मौज-ऐ-सबा हो जैसे
लोग यूं देख के हंस देते हैं
तू मुझे भूल गया हो जैसे
इश्क़ को शिर्क की हद तक न बढ़ा
यूं न मिल हमसे खुदा हो जैसे
मौत भी आएगी तो इस नाज़ के साथ
मुझ पे एहसान किया हो जैसे
ऐसे अनजान बने बैठे हो
तुम को कुछ भी न पता हो जैसे
हिचकियाँ रात को आती हैं बहुत
तूने फिर याद किया हो जैसे
ज़िन्दगी बीत रही अब "गौतम"
एक बेज़ुर्म सज़ा हो जैसे...
2 comments:
उफ़ ……………बहुत शानदार गज़ल्।
क्या बात है ....
Post a Comment