तू चाँद मुझे कहती थी मैं डूब रहा हूँ
अब कोई शनासा भी दिखाई नहीं देता
बरसों मैं इसी शहर का महबूब रहा हूँ
मैं ख़्वाब नहीं आपकी आँखों की तरह था
मैं आपका लहजा नहीं अस्लोब रहा हूँ
इस शहर के पत्थर भी गवाही मेरी देंगे
सहरा भी बता देगा कि मजज़ूब रहा हूँ
रुसवाई मेरे नाम से मंसूब रही है
मैं ख़ुद कहाँ रुसवाई से मंसूब रहा हूँ
दुनिया मुझे साहिल से खड़ी देख रही है
मैं एक जज़ीरे की तरह डूब रहा हूँ
फेंक आए थे मुझको भी मेरे भाई कुएँ में
मैं सब्र में भी हज़रते अय्यूब रहा हूँ
सच्चाई तो ये है कि तेरे क़ुर्रअ-ए-दिल में
ऐसा भी ज़माना था कि मैं ख़ूब रहा हूँ
शोहरत मुझे मिलती है तो चुपचाप खड़ी रह
रुसवाई, मैं तुझसे भी तो मंसूब रहा हूँ
रचनाकार: मुनव्वर
2 comments:
दुनिया मुझे साहिल से खड़ी देख रही है
मैं एक जज़ीरे की तरह डूब रहा हूँ
उम्दा ग़ज़ल!
मुनव्वर जी की ग़ज़लों की बात ही अलग है!
आप ने यहाँ प्रस्तुत करने के लिए बहुत अच्छा चयन किया है .
Behatareen chunaav
Post a Comment