Sunday 16 October 2011

क्या मैं ही मिला था आज़माने के लिए..?

रखे खुदा ने दो रस्ते मुझे आज़माने के लिए
वो छोड़ दे मुझे या मैं छोड़ दूं उसे ज़माने के लिए

कैसे मांग लूं रब से उसे भूल जाने की दुआ
हाथ उठते ही नहीं दुआ में उसे भूल जाने के लिए

न की होगी जिंदगी में मैंने कोई भी नेक़ी मगर
पढ़ी है छिप-छिप के कुछ नमाज़ें उसे पाने के लिए

नहीं है तो न सही वो क़िस्मत में मेरी मगर
एक मौक़ा तो दे ऐ रब उसे ये आंसू दिखने के लिए

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